जब रिक्शावाले दौड़े खुशी के लिए
२५ जनवरी २०११हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे दशकों से कोलकाता की पहचान रहे हैं. इन पर अक्सर विवाद भी होते रहे हैं. इसे अमानवीय करार देते हुए राज्य सरकार कई बार इन पर पाबंदी लगाने का प्रयास कर चुकी है. लगभग छह साल पहले सरकार ने ऐसे नए रिक्शों को लाइसेंस देना ही बंद कर दिया था. लेकिन कोलकाता में ऐसे करीब 20 हजार रिक्शे अब भी चल रहे हैं. इस रिक्शेवालों की नीरस और कठिन जिंदगी में खुशी के दो पल लाने के लिए यहां इन रिक्शेवालों की एक अनूठी रेस का आयोजन किया गया.
दौड़े अपने लिए
चिलचिलाती धूप और बरसात की परवाह नहीं करते हुए भारी-भरकम सवारियों को बिठाकर रोजाना सुबह से शाम तक कोलकाता की ऊबड़-खाबड़ व संकरी गलियों में भागने वाले उस दिन खाली रिक्शा लेकर अपने लिए भाग रहे थे. जहां रोज सवारियों के साथ किराए को लेकर कहासुनी आम बात हो,वहां इस भागने के पहले ही मिली लुंगी और गमछे ने उनके चेहरों पर खुशियों की चमक पैदा कर दी थी. यही नहीं,जीतने पर इनाम के तौर पर कंबल, शॉल और टी-शर्ट भी मिली. मौका था पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में हाथ से रिक्शा खींचने वालों की अनूठी दौड़ का. इसका आयोजन इन रिक्शेवालों का जीवनस्तर सुधारने में जुटी एक गैर-सरकारी संस्था ‘सेव द नेशन' ने किया था.
रिक्शा वालों की हालत
इस संगठन के एक कार्यकर्ता मधुसूदन दत्त बताते हैं, "इस दौड़ का आयोजन रिक्शावालों की दयनीय स्थिति को आम लोगों के समक्ष लाना और यह जताना था कि वह भी इसी समाज के अंग हैं. हम लोगों को यह अहसास दिलाना चाहते थे कि रोजी-रोटी की मजबूरी में रिक्शा खींचने वाले यह लोग भी इंसान ही हैं, मशीन नहीं." यह पहला मौका था जब बिहार व झारखंड से आकर अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले इन लोगों को टीवी कैमरे के सामने बोलने का मौका मिला. उनकी तस्वीरें भी अखबारों में छपीं.
हम भी दौड़ें
अपने तरह की इस अनूठी दौड़ में करीब सौ लोग शामिल हुए. उनको उम्र के हिसाब से अलग-अलग वर्गों में बांटा गया था. इस दौड़ में शामिल झारखंड के गुमला निवासी जमील अंसारी कहते हैं, "हम रोज दूसरों को लेकर सड़कों पर दौड़ते हैं. आज हमने अपने लिए दौड़ लगाई है." अंसारी ने कहा कि उन्होंने फोटो खींचे जाने और टीवी पर दिखने की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी. इस अनूठे आयोजन का साक्षी बनने के लिए कुछ विदेशी पर्यटक भी सूचना पाकर रामलीला पार्क में पहुंच गए थे.
इस प्रतियोगिता में शामिल ज्यादातर रिक्शावाले बिहार और झारखंड के थे. दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद वे सौ से डेढ़ सौ रुपए तक ही कमा पाते हैं. इसमें शामिल अच्छेलाल ने रेस के बाद कहा, "इस दौड़ में शामिल होकर बहुत अच्छा लगा. आखिर रोज हम सवारियों को लेकर इसी रफ्तार से दौड़ते हैं. आज खाली रिक्शा लेकर अपने लिए दौड़ने का मजा ही कुछ और था." आयोजक कहते हैं कि इस आयोजन का एक मकसद रिक्शावालों में आत्मसम्मान की भावना पैदा करना भी था.
रिक्शा बंद हो गया तो
कोलकाता में इन रिक्शों की शुरुआत 19वीं सदी के आखिरी दिनों में चीनी व्यापारियों ने की थी. तब इसका मकसद सामान की ढुलाई था. लेकिन बदलते समय के साथ ब्रिटिश शासकों ने इसे परिवहन के सस्ते साधन के तौर पर विकसित किया. धीरे-धीरे यह रिक्शा कोलकाता की पहचान से जुड़ गया. दुनिया के किसी भी देश में ऐसे रिक्शे नहीं चलते. सरकार भले इसे बार-बार अमानवीय करार देकर इन पर पाबंदी लगाने का प्रयास करती हो, रिक्शावाले इसे अमानवीय नहीं मानते. पिछले 22 साल से रिक्शा चला रहे बिहार के शिव कुमार कहते हैं, "मेरे दादा और पिता भी यहां रिक्शा चलाते थे. मैं और कोई काम ही नहीं जानता. रिक्शा बंद हो गया तो मेरे परिवार भूखा मर जाएगा."
गैरसरकारी संगठन एक्शन एड की ओर से हुए एक ताजा अध्ययन से यह बात सामने आई है कि महानगर में लगभग 20 हजार रिक्शे हैं. हर साल इनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है. इस अध्ययन के मुताबिक एक रिक्शावाला 12 घंटे की कमरतोड़ मेहनत के बाद लगभग डेढ़ सौ रुपए कमाता है. इनमें से 50 रुपए तो रिक्शे का मालिक ले लेता है. बाकी पैसों में खाने-पीने का खर्च काटकर एक रिक्शावाला महीने में औसतन दो हजार रुपए अपने गांव भेजता है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः वी कुमार