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जनता की सुध भुलाती सत्ता और सरकारी मशीनरी

शिवप्रसाद जोशी
१४ जून २०१७

भारत में सरकारी दफ्तरों के राजनीतिकरण से अब पूर्व अधिकारी भी परेशान होने लगे हैं. 65 पूर्व आईएएस अफसरों ने एक खुली चिट्ठी में लोकतांत्रिक मूल्यों पर हो रहे हमलों पर चिंता जताई है.

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Indien Proteste gegen Angriffe auf Studenten aus Tansania in Banglaore
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran

इन रिटायर्ड अधिकारियों ने अपने साथी अफसरों को आगाह किया है कि ये वक्त, संवैधानिक दायित्वों के कड़े इम्तहान का भी है. विघटनकारी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने की अपील करते हुए, ये चिट्ठी प्रशासकीय बिरादरी को भी झंझोड़ती है. अति राष्ट्रवाद के उभार के खतरों को रेखांकित करते हुए चिट्ठी में सरकारी अधिकारियों, संस्थानों और संवैधानिक संस्थाओं से अपील की गई है कि वे उन्मादी प्रवृत्तियों पर लगाम लगाने की कोशिश करें क्योंकि संविधान की मूल भावना की हिफाजत उनका मौलिक दायित्व है. इस चिट्ठी के बहाने अफसरशाही पर नजर डालने का भी अवसर मिलता है. सवाल यही है कि आखिर वो कौन सी नींद है जिसमें इस देश का ‘नौकरशाह' सोया हुआ है. शांति और भाईचारा ही नहीं, अन्य बदहालियों का भी सवाल है. शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और तमाम वे सूचकांक देखिए जिनका संबंध ओवरऑल मानव विकास और नागरिक कल्याण से है. संविधान में दर्ज ये जिम्मेदारियां आखिर हैं तो उस अफसरशाही की जो यूं तो संख्या में कम है लेकिन जिसका प्रभामंडल विराट है.

प्रशासन का गिरता स्तर

सिविल सेवा अधिकारियों की गुणवत्ता की परख के लिए विश्व बैंक द्वारा जारी 2014 के सूचकांक में भारत को 100 में से 45 अंक ही मिले. जबकि 1996 में विश्व बैंक ने जब पहली बार इस तरह का सर्वेक्षण किया था तो ये दर 10 फीसदी ज्यादा थी. 1950-2015 की अवधि में आईएएस परीक्षा में सफलता की दर का आंकड़ा यूपीएससी ने खुद जारी किया है. इसके अनुसार 1950 में ये दर 11.26 फीसदी थी. 1990 में ये 0.75 फीसदी हुई, 2010 में 0.26 फीसदी रह गई और 2015 में तो ये 0.18 फीसदी पर सिमट गई. 2016 में करीब चार लाख सत्तर हजार अभ्यर्थियों में से सिर्फ 180 आईएएस चुने गये. इससे कई सवाल उठते हैं. परीक्षा के बुनियादी ढांचे में गड़बड़ी है? सीटों की संख्या कम है? सवाल गुणवत्ता का भी है. एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार इन चयनित अधिकारियों में यही पाया गया कि वे बस न्यूनतम शैक्षिक योग्यता को ही पूरा करते हैं यानी सिर्फ स्नातक हैं. उनमें से भी अधिकांश तीन चार कोशिशों के बाद सफल हुए हैं और कई ऐसे हैं जो दूसरे पेशों से आए हैं और उनकी उम्र अधिकतम है. दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के पैकेज और काम की बेहतर परिस्थितियों की वजह से प्रतिभाशाली युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित करना कठिन चुनौती है. अफसरों की ट्रेनिंग का भी सवाल है. मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी अपनी संरचना में जितनी भव्य दिखती है, उतना ही औपनिवेशिक भी. बेशक यहां राष्ट्रपति, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ आदि व्याख्यान देने आते हैं लेकिन लगता है, प्रशिक्षु अफसरों की ट्रेनिंग का मूल मंत्र "जी मंत्रीजी” की बाबू मानसिकता और यथास्थिति को बनाए रखना है.

Indien Proteste von Studenten
तस्वीर: DW/M. Krishnan

संविधान उन्हें नागरिक अधिकारों की हिफाजत, जनसेवा और लोकतंत्र की निरंतरता को कायम रखने का प्रशासनिक दायित्व सौंपता है. लेकिन वास्तविकता में ये नागरिक समाज से अलग और जनता के सवालों, संघर्षों और आकांक्षाओं से दूर रहते हैं और इनका वक्त राजसत्ता को उपकृत करने और उपकृत रहने में ही बीतता है. राजनैतिक दखल की यही पीड़ा उपरोक्त चिट्ठी में अपने ढंग से अभिव्यक्त हुई है. 2010 के एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ 24 फीसदी अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग, मेरिट के आधार पर होती है. हर दूसरे अधिकारी का मानना है कि राजनैतिक हस्तक्षेप एक प्रमुख समस्या है. प्रमोशन, तबादले, पोस्टिंग आदि भी नियमों को ठेंगा दिखाकर नेता-मंत्री-अफसर के गठजोड़ की दया पर निर्भर हैं. इस गठजोड़ में अब कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल भी शामिल हो गये हैं.

बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप

राजनीतिक संपर्कों के आधार पर अधिकारियों को मलाईदार ओहदे दिये जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद किसी निगम या आयोग की अध्यक्षता-सदस्यता देकर उनका पुनर्वास भी कर दिया जाता है. इस व्यवस्था में जो अफसर स्वतंत्र ढंग से काम करना चाहता है तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है. हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका के मामले को कौन भूलेगा? भ्रष्टाचार के मामलों की छानबीन की वजह से उन्हें 24 सालों  में 47 तबादले झेलने पड़े हैं. इस तरह के बेशक कम लेकिन और भी उदाहरण हैं. पिछले दिनों उत्तराखंड में एक लोकप्रिय जिलाधीश का तबादला ऑर्डर आया तो स्थानीय लोगों ने जोरदार विरोध प्रदर्शन कर दिया.

ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई. इसके लिये 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था. इसी आयोग ने पहले पहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी. लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग 2005 में जाकर बना. वीरप्पा मोइली इसके अध्यक्ष थे. लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया. न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है.

पूर्व आईएएस अधिकारियों की चिट्ठी, प्रशासकीय कुशलता में गिरावट पर क्षोभ की अभिव्यक्ति है. यही वो पतन है जो फिर अलग अलग ढंग से दिखता है. असामाजिक शक्तियों को बल मिलता जाता है. पिछले दिनों सहारनपुर में जो दिखा वो भयावह था जब हिंदूवादी भीड़ ने जिले के एसएसपी के घर को ही निशाना बना दिया. कुछ दिन पहले मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान उग्र भीड़ ने कलेक्टर को ही मारपीट कर भगा दिया. कुशल प्रशासक दोनों स्थितियों की नौबतें आने ही नहीं देता. इस प्रशासक को एक बेहतर प्रशिक्षण, बेहतर तालमेल, बेहतर कार्य परिस्थितियां और बेहतर राजनैतिक पर्यावरण की दरकार थी. जब ये सब नहीं मिलता तो होता क्या है, जलता समाज है और गिरता देश है.