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जजों की नियुक्ति पर साफगोई से डरती व्‍यवस्‍था

४ नवम्बर २०१५

भारत में पारदर्शिता और ईमानदारी की बातें बहुत होती हैं लेकिन इसे जीवन में लागू करने की बात आते ही साफगोई महज कागजों तक ही सीमित होकर रह जाती है. ताजा मामला न्‍यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

एक तरफ मोदी सरकार ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए न्‍यायिक नियुक्ति आयोग बनाने की कोशिश की तो सर्वोच्‍च अदालत ने इस पहल को ही नकार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम व्यवस्था में आमूल परिवर्तन से इंकार किया है लेकिन मौजूदा व्यवस्था में अधिक पारदर्शिता के लिए तैयारी व्यक्त की है. सरकार और सर्वोच्च अदालत की दलीलों पर अगर तटस्‍थ नजर से देखा जाए तो दोनों की मंशा में खोट साफ दिखता है.

क्‍या है मसला

दरअसल सरकार उच्‍च न्‍यायपालिका में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलना चाहती है. मौजूदा कोलेजियम व्‍यवस्‍था देश के महज पांच वरिष्‍ठतम जजों के मातहत है. सरकार इसमें विधायिका का दखल सु‍निश्‍चित कर पारदर्शिता लाने की दलील दे रही थी. इसके लिए प्रस्‍तावित न्‍यायिक निुयक्ति आयोग के वजूद को न्‍यायपालिका ने नकार कर मौजूदा व्‍यवस्‍था में ही सुधार की पहल की है. सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्‍यीय संविधान पीठ कोलेजियम व्‍यवस्‍था में पारदर्शिता लाने की तो हिमायती है लेकिन उसे इसमें किसी का दखल बर्दाश्‍त नहीं है.

सुनवाई के दौरान देश के शीर्ष कानूनविदों ने समस्‍या के अपने तईं समाधान भी पेश किए. जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और निष्‍पक्षता की दलील देते हुए सॉलिसिटर जनरल मुकुल रोहतगी ने तीन महत्‍वपूर्ण सुझाव पेश किए. पहला कोलेजियम के लिए पूर्णकालिक सचिवालय हो, जो नियुक्ति से संबंधित हर बात लिखित रूप में संकलित करे और नियुक्ति प्रक्रिया में कोई खामी या चूक होने की जांच का इंतजाम हो. इसके लिए हर नागरिक के पास नियुक्ति पर सवाल उठाने का अ‍धिकार हो.

अदालत के सवाल

सरकार द्वारा पारदर्शिता के हवाले से दिए गए इन सुझावों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए सवाल ने न्‍यायपालिका की शंका उजागर कर दी. अदालत ने रोहतगी के जांच के सुझाव पर यह कहते हुए सवालिया निशान लगा दिया कि अगर इसे मान लिया जाए तो कोलेजियम सचिवालय साल भर सिर्फ शिकायतों का निस्‍तारण और जांच करता रहेगा.ऐसे में नियुक्तियां हो ही नहीं पाएंगी. दरअसल अदालत को सवालों के अंबार से डर लगता है. न्‍यायपालिका को यह हकीकत समझना चाहिए कि सवालों के घेरे से ही समाधान का रास्‍ता निकलता है. अगर मंशा साफ है तो फिर सवालों से भय का प्रश्‍न ही नहीं उठता है. आरटीआई आंदोलन के दुरुपयोग के अनुभव से न्‍यायपालिका सबक लेकर कम से कम कोलेजियम व्‍यवस्‍था में सुधार के लिए सरकार के सुझावों को सकारात्‍मक नजरिए से देखना चाहिए.

हकीकत यह है कि आरटीआई से लेकर चुनाव सुधार प्रक्रिया तक न्‍यायपालिका ने कार्यपालिका और विधायिका को पारदर्शिता की नजीर बढ चढ कर पेश की. मगर जब अपनी गरेबां में झांकने की बारी आई तो न्‍यायपालिका सवालों से बच क्‍यों रही है. हालांकि व्‍यवस्‍थागत खामियों का तकाजा है कि न्‍यायपालिका की आशंकाओं पर उठते सवालों के बीच विधायिका की मंशा भी कहीं से साफ नहीं दिखती है. ऐसे में किसी भी फार्मूले के कारगर साबित होने की नाउम्‍मीदी भविष्‍य की तस्‍वीर को स्‍याह कर देती है. शायद यही इस व्‍यवस्‍था की नियति है.

ब्लॉग: निर्मल यादव