चुनौती है बोलने की आजादी की रक्षा
८ मार्च २०१४एमके रैना मूलतः रंग निदेशक हैं लेकिन उनकी ख्याति एक उत्कृष्ट अभिनेता के रूप में भी है. उन्होंने अवतार कृष्ण कौल की फिल्म '27 डाउन', प्रसिद्ध हिन्दी कवि मुक्तिबोध पर मणि कौल द्वारा बनाई फिल्म 'सतह से उठता हुआ आदमी', मृणाल सेन की 'जेनेसिस', और आमिर खान की 'तारे जमीन पर' जैसी अनेक फिल्मों में सराहनीय अभिनय किया है. उनके द्वारा निर्देशित नाटक बर्लिन में भी मंचित हो चुके हैं. रंगकर्म में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी ने अपने प्रतिष्ठित पुरस्कार से अलंकृत किया. रंगकर्मी होने के अलावा रैना एक सक्रिय सांस्कृतिक एक्टिविस्ट भी हैं और दशकों से सांप्रदायिकता एवं हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज उठाते रहे हैं. यहां प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश:
आप निदेशक भी हैं और अभिनेता भी. इनमें से कौन-सा रूप आपके दिल के ज्यादा करीब है?
मुझे अभिनय करने में भी बहुत आनंद आता है, लेकिन मैं मूलतः निदेशक ही हूं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक देवेंद्र राज अंकुर ने कहीं कहा है कि अभिनय की क्लास में छात्र कम पड़ रहे थे तो रैना को उसमें डाल दिया गया...(हंसी).
आपका शुरुआती दौर कहां गुजरा?
मैं तो कश्मीर में पैदा हुआ, श्रीनगर में. वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई. हमारे स्कूल के प्रिंसिपल थे मशहूर कश्मीरी कवि दीनानाथ नदीम. वह हम बच्चों के लिए छोटे-छोटे नाटक लिखते थे और हम उन्हें खेलते थे. मुझे याद है कि जब ख्रुश्चेव और बुल्गानिन श्रीनगर आए थे तो हम बच्चों ने उनके सामने एक नाटक किया था. हम इतने छोटे थे कि हमें मेजों पर चढ़ाया गया था ताकि दर्शक हमें देख सकें. दीनानाथ नदीम ऐसे कवि थे जिनके अनेक गीत कश्मीर के लोकगीतों की समृद्ध परंपरा और विरासत का अंग बन गए हैं. आज लोग उन्हें यह जाने बिना गाते हैं कि इन्हें किसने लिखा है. मेरे पिताजी डॉक्टर थे और पूरी तरह सेकुलर थे. शायद उन्हीं से मेरे अंदर भी यह भावना आई. जब मैं बड़ा हुआ तो मुझे सलाह दी गई कि मुझे दिल्ली जाकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रशिक्षण लेना चाहिए. मुझे जम्मू-कश्मीर सरकार ने छात्रवृत्ति देकर यहां भेजा था.
नाटकों और फिल्मों में आपके योगदान से तो हम सभी परिचित हैं ही. आज रंगकर्मियों और कलाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
सबसे बड़ी चुनौती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने की. आज उस पर हर तरफ से हमले हो रहे हैं. सोचिए, अगर आज आपको नाटक करना है तो चार जगह से अनुमति लेनी होती है. ट्रैफिक पुलिस से, मनोरंजन कर एवं बिक्री कर अधिकारियों से और फिर पुलिस के लाइसेंस देने वाले अधिकारी से. नाटक से ऐसा क्या खतरा है? दूसरी तरफ सांप्रदायिक ताकतें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने में लगी हैं.
कला और संस्कृति के क्षेत्र में सरकार की नीतियों से आप कितना संतुष्ट हैं? खासकर रंगमंच के प्रति नीति से?
देखिये, सरकार कला और संस्कृति के लिए काफी धन खर्च कर रही है. लेकिन उसका सही इस्तेमाल नहीं हो रहा और न ही वह सही हाथों में पहुंच रहा है. अनाप-शनाप ढंग से पैसा बहाया जा रहा है, इसीलिए कला और संस्कृति के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पा रही. सबसे बड़ी समस्या दृष्टि की है. मेरी राय में आज स्थिति उस 1970 के दशक के शुरुआती सालों से भी ज्यादा खराब है. नाटक के रिहर्सल तक के लिए अभी तक जगह नहीं उपलब्ध कराई जा सकी है. दिल्ली शहर इतना बड़ा हो गया है लेकिन यहां ऑडिटोरियम लगभग उतने ही हैं जितने आज से चालीस साल पहले थे. जब तक बुनियादी ढांचा नहीं खड़ा किया जाएगा और सभी के लिए काम करने की सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जाएंगी, तब तक कला और संस्कृति का विकास कैसे हो सकता है?
इंटरव्यू: कुलदीप कुमार
संपादन: महेश झा