बच्चे हैं, नादान नहीं
१४ मई २०१४ऐसा मानना है डॉक्टर जीन शिंस्की का, जो लंदन यूनिवर्सिटी में बच्चों के मनोविज्ञान पर शोध कर रही हैं. अपनी ताजा रिसर्च में डॉक्टर शिंस्की ने पाया कि बच्चे जीवन के पहले साल में बहुत सी चीजें पहचानने और समझने लगते हैं. उन्होंने बताया कि नौ महीने की उम्र से ही ऐसा होने लगता है कि वे तस्वीरों के माध्यम से चीजों की पहचान कर सकें, "हमने अपनी रिसर्च में देखा कि पहले साल में ही बच्चे दो आयामों वाली तस्वीरों से बहुत कुछ सीख सकते हैं."
अब तक ऐसा माना जाता था कि बच्चों को तस्वीरों की समझ नहीं होती. इसीलिए उनके लिए खास तरह की किताबें बनाई जाती हैं जिनके पन्ने किसी ग्रीटिंग कार्ड जैसे होते हैं. पन्ने पलटते ही कभी पेड़ निकल कर खड़ा हो जाता है तो कभी घर और कभी गाड़ी. लेकिन ताजा शोध के अनुसार बच्चों को ऐसी किताबों की जरूरत ही नहीं है, बल्कि ये उनके लिए नुकसानदेह हो सकती हैं.
इस रिसर्च में आठ से नौ महीने के तीस बच्चों को अलग अलग चीजों की तसवीरें दिखाई गयीं. तस्वीरों में उन चीजों का आकार वैसा ही था जैसा असल में होना चाहिए. बच्चों को एक मिनट तक हर तस्वीर दिखाई गयी. ज्यादातर वे इन तस्वीरों में खिलौने देख सकते थे. बाद में उनके सामने तस्वीर वाला ही खिलौना रखा गया और उसके साथ एक अन्य खिलौना भी, जिसका रंग और आकार तस्वीर वाले खिलौने से अलग हो.
रिसर्चर देखना चाहते थे कि बच्चे किस खिलौने के तरफ बढ़ेंगे. वे यह देख कर हैरान हुए कि अधिकतर बच्चों ने तस्वीर वाले खिलौने को चुनना पसंद नहीं किया. शिंस्की बताती हैं, "अधिकतर वे नए आकार के हरे खिलौने के पास गए. इससे हमें पता चलता है कि उन्हें तस्वीर में दिखा नारंगी खिलौना याद था. वे उसे देख कर ऊब चुके थे और कुछ नया देखना चाहते थे. यानि जब तस्वीर उनके सामने नहीं होती, तब भी उन्हें वह याद रहती है."
कई बार किताबों और खिलौनों पर लिखा होता है कि वे किस उम्र के बच्चों के लिए सही हैं. शिंस्की का सुझाव है कि बच्चों को बहुत कम उम्र से ही किताबों से जोड़ना चाहिए लेकिन साधारण, दो आयामों वाली किताबों से ही, क्योंकि "तीन आयामी तस्वीरें उनकी सीखने की प्रक्रिया में बाधा बन सकती हैं." और सबसे बढ़ कर, बच्चों को अपना वक्त दें, उनसे वैसे ही बात करने की कोशिश करें जैसे बाकी लोगों से करते हैं. इससे उन्हें नई चीजें सीखने में मदद मिलेगी.
रिपोर्ट: जेसी विनगार्ड/ईशा भाटिया
संपादन: महेश झा