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चीन में भाषा का बुलडोजर

२२ नवम्बर २०१०

भारत जैसे कुछ एक देश बहुभाषी माने जाते हैं, इसके विपरीत जर्मनी में एक ही भाषा चलती है. लेकिन भाषाओं की विविधता उन देशों में भी नए सवाल सामने ला रही है, जिन्हें एक भाषा का देश माना जाता रहा है. मसलन चीन.

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तस्वीर: AP

तिब्बत की पहाड़ियों से लेकर शंघाई तक चीन की एक अरब तीस करोड़ की आबादी को चीनी भाषा के आधिकारिक मंदारिन रूप में शिक्षा दी जाती है, लेकिन सारे देश में अभी तक स्थानीय बोलियों से लगाव बना हुआ है. कैंटन, शंघाई या तिब्बत की स्थानीय बोलियों को सरकारी स्तर पर निरुत्साहित किया जाता रहा है, लेकिन इस सवाल पर अक्सर आम लोगों की ओर से विरोध भी देखने को मिले हैं, जो चीन में एक अपवाद की तरह है.

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भाषा की क्लासतस्वीर: MEHR

मिसाल के तौर पर जुलाई के महीने में दक्षिण चीन के नगर गुआंगझू में स्थानीय भाषा कैंटनीज के समर्थन में एक विरोध प्रदर्शन हुआ था. प्रदर्शनकारियों का नारा था : कैंटनी जनता के लिए कैंटनीज.

वैसे तो चीन में जमीन पर जबरन कब्जा, भ्रष्टाचार या पर्यावरण प्रदूषण जैसे सवालों पर जनता का विरोध सुगबुगाता रहा है, लेकिन तिब्बत के बाहर यह पहला मौका था, जब आम लोग कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा नीति जैसे किसी सांस्कृतिक सवाल पर सड़क पर उतर आए.

एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार लगभग चीन में पचास फीसदी आबादी मंदारिन बोलती है. देहाती इलाको में मंदारिन का प्रचलन लगभग नहीं के बराबर है. लेकिन देश की एकता को मजबूत करने के लिए मंदारिन के इस्तेमाल को आगे बढ़ाने की एक लंबी परंपरा है, जो राजतंत्र के जमाने से चली आ रही है. भाषाई बहुलता को चीन में राष्ट्रीय एकता के अंतर्गत कभी भी स्वीकार नहीं किया गया है.

Tibet China Proteste
भाषा के लिए विरोध प्रदर्शनतस्वीर: AP

हांगकांग के चोई सुक फोंग का कहना है कि सरकार की भाषा नीति चिंता का विषय है, क्योंकि इसके चलते तिब्बतियों सहित अनेक छोटी जनजातियों की संस्कृतियों के विलोप का खतरा पैदा हो गया है. चोई सुक फोंग पिछले कुछ समय से कैंटन में स्थानीय भाषा की रक्षा के लिए संघर्ष में सक्रिय रहे हैं.

आर्थिक विकास से संस्कृति को चुनौती

कैंटन या शंघाई जैसे शहरों में तेज आर्थिक वृद्धि के चलते घरेलू आप्रवासियों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. इसके फलस्वरूप स्थानीय लोग अपने ही शहर में अल्पमत में होते जा रहे हैं. प्रोफेसर किआन नाइरोंग शंघाई की स्थानीय भाषा की एक डिक्शनरी तैयार कर चुके हैं. उनका कहना है कि शहर के भाषाई माहौल में खुलेपन की जरूरत है. वे कहते हैं, बच्चों को शुरू से ही अपनी मातृभाषा के प्रयोग की छूट दी जानी चाहिए.

इस सिलसिले में ताइवान की स्थिति भी चीन से अलग नहीं है. गृहयुद्ध में हार के बाद जब वहां चिआंग काई शेक के नेतृत्व में राष्ट्रवादियों की सरकार बनी, राष्ट्रीय एकता के लिए मंदारिन को बढ़ावा दिया गया, जबकि स्थानीय बोली होक्कियेन को दबाने की कोशिश की गई. स्कूलों में होक्कियेन बोलने पर पूरी तरह से पाबंदी थी. ताइपेई के सूचो विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्री ह्सू युंग मिंग कहते हैं कि जब किसी भाषा को दबाने की कोशिश की जाती है, तो वह अचानक लोकप्रिय होने लगती है.

शंघाई के उभरते मध्यवर्ग में अब तक ऐसी रुझानें देखने को नहीं मिली थी. चीन के आर्थिक चमत्कार के साथ साथ शहरी मध्यवर्ग में राजनीतिक सवालों की दिलचस्पी का अभाव शायद इसका एक कारण था. लेकिन अब विरोध के स्वर सुगबुगाने लगे हैं. कहना मुश्किल है कि सांस्कृतिक या राजनीतिक रूप से इसका क्या असर होगा.

रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ

संपादन: ए जमाल