1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

चंदे के स्रोत बताएं राजनीतिक दल

२५ अगस्त २०१५

राजनीतिक दल इससे सहमत नहीं कि वे सार्वजनिक संस्थाएं हैं. इस पर एकमत होने के बावजूद इस मसले के प्रत्येक पहलू पर सभी राजनीतिक दलों का समान रुख नहीं है. उनके चरित्र के अनुसार उनके रुख में भी काफी अंतर है.

https://p.dw.com/p/1GLCp
तस्वीर: UNI/V. Chauhan

लोकतंत्र में पारदर्शिता का होना बेहद जरूरी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने सूचना के अधिकार का कानून बना कर इस दिशा में एक दूरगामी महत्व की पहल की थी. इस कानून के कारण पिछले वर्षों में ऐसी अनेक जानकारियां सामने आई हैं जो पहले नहीं आ सकती थीं. क्योंकि सरकारी विभागों की फाइलों और उन पर अधिकारियों द्वारा की गई नोटिंग के बारे में भी अब सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी जा सकती है, इसलिए अधिकारी अब पहले की अपेक्षा अधिक सजग हैं. सरकारी कामकाज में इसके कारण बेहतरी हुई है और पारदर्शिता भी आई है.

लेकिन बुनियादी सवाल यही है कि क्या हम राजनीतिक दलों को, जो स्वैच्छिक संगठन हैं, सरकारी विभागों की कोटि में रख सकते हैं? राजनीतिक दलों के बीच इस बिन्दु पर मतैक्य है कि उनके साथ सरकारी विभागों जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता. वे सरकार द्वारा दिये गए धन के आधार पर नहीं चलती हैं, न ही उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं को सरकार की ओर से वेतन मिलता है. उनके इस तर्क में दम लगता है. लेकिन जहां तक वित्तीय पारदर्शिता का सवाल है, उनकी देश के मतदाताओं के सामने यह स्पष्ट करने की जिम्मेदारी है कि उन्होंने सही तरीकों से प्राप्त पैसे का इस्तेमाल करके शुचितापूर्ण साधनों के आधार पर चुनाव लड़ा. सभी जानते हैं कि राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारण राजनीतिक पार्टियों को औद्योगिक घरानों और व्यावसायिक कंपनियों से मिलने वाला धन है. यह धन बहुत कम मात्रा में चेक से दिया जाता है और बहुत अधिक मात्रा में नकद. यानी काला धन हमारे देश की राजनीतिक प्रणाली को चलाने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है. राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग को अपनी आय और खर्च आदि का जो ब्यौरा देते हैं, वह नाकाफी होता है लेकिन आयोग इस मामले में कुछ करने में असमर्थ है.

Indien Wahlen 2014 BJP Narendra Modi Anhänger Feier
तस्वीर: Reuters

क्या राजनीतिक पार्टियों को सूचना के अधिकार संबंधी कानून के तहत अपनी आय का प्रामाणिक विवरण देने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए? इस बिन्दु पर कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों की राय है कि ऐसा नहीं किया जा सकता लेकिन सीपीआई और सीपीएम जैसी पार्टियों को इस पर कोई ऐतराज नहीं है. हकीकत यह है कि ये पार्टियां हर साल अपने मुखपत्रों में पार्टी को धन देने वालों की विस्तृत सूची प्रकाशित करती हैं. इन पार्टियों को इस बात पर ऐतराज है कि उन्हें अपनी अंदरूनी बैठकों में हुए विचार-विमर्श और फैसले लेने की प्रक्रिया के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब देने के लिए बाध्य किया जाए. इसी तरह यदि कल कोई यह सवाल भेजे कि अमुक उम्मीदवार को पार्टी ने किस आधार पर चुनाव में टिकट दिया, तो पार्टी को इसका जवाब देने की बाध्यता न हो क्योंकि इस मुद्दे पर हर पार्टी के अपने आधार हैं, और कई बार ये अलग-अलग उम्मीदवारों के मामले में अलग-अलग हो सकते हैं.

राजनीतिक पार्टियों के इस तर्क में जान है क्योंकि राजनीतिक कामकाज में गोपनीयता भी होती है. वे एक-दूसरे के साथ राजनीतिक वर्चस्व की प्रतियोगिता में हैं. उनसे उनकी अंदरूनी बैठकों में होने वाले विचार-विमर्श या निर्णयों के बारे में जानकारी मांगना ऐसा ही है जैसे किसी क्रिकेटर या टेनिस खिलाड़ी से टेस्ट मैच या टूर्नामेंट के पहले उसकी रणनीति के बारे में पूछना. लेकिन जहां तक धन के स्रोतों का सवाल है, प्रत्येक राजनीतिक दल को इन्हें सार्वजनिक करना चाहिए. यदि राजनीतिक पार्टियों के लिए सूचना के अधिकार कानून में संशोधन कर दिया जाए और कुछ मामलों में जानकारी देने की बाध्यता कर दी जाये, तो यह एक स्वागत योग्य कदम होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार