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गुंडागर्दी का अड्डा बने कॉलेज

१८ फ़रवरी २०१३

भारत के कई कॉलेजों में हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. इसके लिए कोई शिक्षा में राजनीति की घुसपैठ को जिम्मेदार ठहराता है तो कोई एकल परिवारों में बच्चों के पालन-पोषण में रहने वाली खामियों को.

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Indien Demonstrierende Studentenतस्वीर: DW/ P. Mani Tewari

बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडीशा, तमिलनाडु से लेकर छत्तीसगढ़ तक कोई भी राज्य इस हिंसा से अछूता नहीं है. आखिर कैंपस में क्यों बढ़ रही है हिंसा ? इस बारे में शिक्षाविदों व राजनीतिज्ञों की राय अलग अलग है.

बंगाल में हिंसा

पश्चिम बंगाल के कैंपसों में राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से हिंसा का इतिहास काफी पुराना रहा है. अब ताजा मामले में राजधानी कोलकाता के एक कॉलेज में छात्रसंघ चुनावों के सवाल पर हुई हिंसा और गोलीबारी में कोलकाता के एक सब-इंस्पेक्टर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. 

बंगाल में 70 के दशक में नक्सल आंदोलन के सिर उठाने के बाद से ही शैक्षणिक संस्थान इस हिंसा की चपेट में आ गए थे. राज्य में सत्ता परिवर्तन के बावजूद इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं हो सका है. उल्टे हालात और बेकाबू हो रहे हैं. माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य और छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष श्यामल चक्रवर्ती कहते हैं, "इस समय विभिन्न शिक्षण संस्थानों में जो हो रहा है उसे कैंपस वायलेंस या शैक्षणिक परिसर में हिंसा नहीं कहा जा सकता. यह दरअसल परिसर पर हमला है. यह छात्रों का लोकतांत्रिक अधिकार छीनने की प्रक्रिया है."

Indien Demonstrierende Studenten
Indien Demonstrierende Studentenतस्वीर: DW/ P. Mani Tewari

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रदीप भट्टाचार्य कहते हैं, "यह 70 के दशक के दिनों की वापसी है. उस समय भी शैक्षणिक संस्थानों में हिंसा चरम पर थी और आज भी वही स्थिति है." लेकिन 70 के दशक में नक्सल आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले छात्र नेता अजीजुल हक को लगता है कि उस समय की परिस्थिति की तुलना मौजूदा दौर से नहीं की जा सकती. वह कहते हैं, "उस समय छात्र राजनीति एक आदर्श से प्रेरित थी. लेकिन अब शिक्षण संस्थानों की राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ हो गई है. उनकी राय में मीडिया के बढ़ते असर ने इस हिंसा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है." जाने-माने अर्थशास्त्री दीपंकर दासगुप्ता कहते हैं, "70 के दशक में छात्र राजनीति के साथ पढ़ाई पर भी ध्यान देते थे. अब ऐसा नहीं है. इसकी वजह से शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है. तब छात्र राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित नहीं थी."

हिंसा का असर शिक्षा पर

कॉलेज प्रोफेसर रतन भट्चार्य कहते हैं कि शैक्षणिक परिसर में बढ़ती हिंसा का शिक्षा पर सीधा असर पड़ रहा है. हिंसा में शामिल होकर छात्र अपने करियर से खिलवाड़ कर रहे हैं. वह कहते हैं कि राज्य में राजनीतिक बदलाव की बयार ने छात्र राजनीति पर भी गहरा असर डाला है. बीते एक दशक के दौरान पहले सीपीएम से जुड़े छात्र संघ का वर्चस्व था तो अब तृणमूल से जुड़े छात्र संघ की तूती बोल रही है. 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की तर्ज पर इस लड़ाई से छात्रों का ही नुकसान हो रहा है. माकपा से संबद्ध स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) के प्रदेश अध्यक्ष मधुजा सेन राय कहते हैं, "बीते डेढ़ वर्षों के दौरान छात्र संघों के कामकाज के तरीके में व्यापक बदलाव आया है. पहले छात्र राजनीति में असामाजिक तत्वों की घुसपैठ नहीं थी. लेकिन अब ऐसे तत्वों की भरमार है. उनकी वजह से ही हिंसा की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है."

कांग्रेस से संबद्ध छात्र संगठन छात्र परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोहित राय कहते हैं, "पहले और अब की हालत में काफी बदलाव आया है. पहले छात्र आंदोलनों का एक मकसद होता था. लेकिन अब तो बात-बात पर घेराव और हिंसा आम बात हो गई है. अब छात्र छोटी-छोटी बातों पर भी हिंसक हो उठते हैं."

मिसाल बना बेसू

कोलकाता से सटे हावड़ा में स्थिति बंगाल इंजीनियरिंग एंड साइंस यूनिवर्सिटी यानी बेसू पहले हिंसा के लिए राज्य ही नहीं, बल्कि पूरे देश में बदनाम थी. साल में शायद ही कोई महीना ऐसा बीतता था जब वहां हिंसा के चलते कक्षाएं बंद नहीं होती हों. लेकिन तीन साल पहले नए वाइस चांसलर अजय राय ने छात्र संघ को भंग कर एक सीनेट का गठन कर दिया. तब से आश्चर्यजनक तौर पर हिंसा पूरी तरह खत्म हो गई है. राय कहते हैं, "इंजीनियरिंग कालेज में छात्र संघ या राजनीति का क्या काम है ? यहां से पढ़ कर निकलने वाले छात्र अफसर बनेंगे. उनको राजनीति थोड़े करनी है." बेसू परिसर में मिली कामयाबी के बाद अब पूरे राज्य में इस मॉडल को अपनाने की मांग उठने लगी है. भारतीय तकनीकी संस्थान,खड़गपुर और भारतीय प्रबंधन संस्थान, कोलकाता ने भी इसी माडल के जरिए परिसर में हिंसा पर अंकुश लगाने में कामयाबी हासिल की है.

Indien Demonstrierende Studenten
तस्वीर: DW/ P. Mani Tewari

अंकुश जरूरी

यादवपुर विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर सौविक भट्टाचार्य व प्रेसीडेंसी कालजे के पूर्व प्रिंसिपल अमल मुखर्जी मानते हैं कि छात्र संघ की राजनीति से राजनीतिक रंग खत्म किए बिना इस हिंसा पर अंकुश लगाना संभव नहीं है. लेकिन समाज विज्ञानी प्रशांत राय कहते हैं, "भारत के शैक्षणिक संस्थानों में स्वाधीनता आंदोलन के समय से ही राजनीतिक दलों का दखल रहा है. छात्र संघों को एक या दूसरी पार्टी का समर्थन हासिल है. इन पर पूरी तरह अंकुश लगाना संभव नहीं है."

मनोविज्ञानियों का कहना है कि टूटते संयुक्त परिवार की वजह से अब एकल परिवारों में पलते बच्चे मां-बाप से अपनी हर जिद मनवा लेते हैं. यही बच्चे आगे चल कर जह कालेज में आते हैं तो किसी भी कीमत पर जीत की कोशिश में साम-दाम-दंड-भेद अपनाने लगते हैं. वह किसी भी हालत में हार कबूल नहीं कर सकते. यही वजह है कि कालेज परिसरों में हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा मोंढे