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गिर रही है बलात्कारियों को सजा देने की दर

निर्मल यादव२४ अगस्त २०१६

भारत में निर्भया कांड के बाद महिला हिंसा से जुड़े कानून को सख्त करने के बावजूद इसका असर होता नहीं दिख रहा है. आंकड़े इस बात का सबूत पेश करते हैं.

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Indien Protest gegen Vergewaltigung
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Str

दिल्ली पुलिस के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के महज 29.37 प्रतिशत मामलों में आरोपियों को दोषी ठहराया जा सका है. कानून के मार्फत बलात्कार का जुर्म साबित कर पाने का यह आंकड़ा पिछले पांच सालों में न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है. साल 2011 में बलात्कार का अपराध साबित कर पाने में बतौर अभियोजन पक्ष पुलिस को 41.52 फीसदी मामलों में कामयाबी मिली थी. वहीं इसके एक साल बाद यह बढ़कर 49.25 फीसदी हो गया.

आंकड़े डराते हैं

2012 ही वो साल था जब दिल्ली सहित दुनिया भर को निर्भया सामूहिक बलात्कार व हत्याकांड ने झकझोर कर रख दिया था. इसी मामले के कारण देश भर से महिला हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त करने की आवाज उठने के बाद कानून में माकूल बदलाव किये गये और पुलिस भी इस दिशा में सक्रिय हुई थी. जिसका नतीजा आरोपियों का जुर्म साबित करने के ग्राफ में बढ़ोतरी के रुप में देखा गया. इसके बाद पुलिस और जांच एजेंसियों का रवैया उसी ढर्रे पर आ गया और तीन सालों में यह ग्राफ लगातार गिरते हुए साल 2013 में 35.69, साल 2014 में 34.69 और साल 2015 में 29.37 प्रतिशत पर आ गिरा.

Indien Polizei in Neu Delhi ARCHIVBILD
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Sharma

हालांकि बलात्कार के अलावा दहेज हत्या, छेड़छाड़, यौन हिंसा और पति की क्रूरता जैसे अपराधों के मामले में भी दिल्ली की पीड़िताओं के लिए आरोपियों को सलाखों के पीछे भेज पाने में कामयाबी अभी दूर की कौड़ी है. इन मामलों में भी औसतन 50 प्रतिशत आरोपी ही दोषी साबित हो पा रहे हैं. सबसे दयनीय स्थिति पति हिंसा के मामलों में रही. बीते साल 2015 में पत्नी के साथ क्रूरता करने के महज एक चौथाई आरोपी पति ही दोषी साबित हो पाए. यह बात दीगर है कि साल 2011 में यह स्तर मात्र 16.50 प्रतिशत था.

जहां तक दहेज हत्या के मामलों में आरोपियों को दोषी करार दिए जाने का आंकड़ा 53 प्रतिशत तक पहुंचने का सवाल है तो इस हकीकत को भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली में दहेज के मामले महिला हिंसा के अन्य मामलों की तुलना में कम हुए हैं इसलिए भी यह आंकड़ा अन्य अपराधों की तुलना में बढ़ गया. वहीं बीते पांच सालों में छेड़छाड़ के मामलों में इजाफे के बावजूद आरोपियों का जुर्म साबित कर पाने में गिरावट पुलिस और सरकार के लिए चिंता का सबब बन गया है.

महज कानून की सख्ती नाकाफी

दिल्ली सरकार की महिला हेल्पलाइन 181 की संस्थापक और वकील खदीजा फारुखी का मानना है कि निर्भया कांड के बाद महिलाएं जुल्म के खिलाफ जुबान खोलने लगी हैं लेकिन पुलिस का रवैया अभी भी महिला हिंसा के मामलों में संवेदनहीन ही बना हुआ है. पहले जब कानून सख्त नहीं था तब पीड़ित महिलाएं पुलिस और अदालत से लेकर अस्पताल तक की जटिल जांच प्रक्रिया की वजह से न्याय मिलने में देरी को देखते हुए खुद अपना मुकदमा वापस ले लेती थीं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के बार बार के दखल के बाद जब जटिल जांच प्रक्रिया को महिलाओं के हित में बनाकर फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई की गई तब भी मुकदमे को फैसले तक पहुंचने में 4-5 साल तो लग ही जाते हैं. ऐसे में किसी भी पारिवारिक या अकेली महिला को अस्पताल से लेकर पुलिस थानों और अदालतों में न्याय के लिए अभी भी अपमानित होना पड़ता है.

Indien Protest Mutter des Opfers Nirbhaya
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर बने सफेद हाथी

उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात सहित अन्य राज्यों में दिल्ली की तर्ज पर महिला हेल्पलाइन चालू करने में सरकारों की मददगार रही फारुखी बताती हैं कि केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों से महिला हिंसा खासकर बलात्कार के मामलों में पीड़िता के लिए वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर बनाने को कहा था. दो साल में अभी तक दिल्ली में महज दो सेंटर बन पाए हैं. जबकि अन्य राज्य इस बारे में विचार ही कर रहे हैं. इस सेंटर में पीड़िता को मेडिकल जांच से लेकर पुलिस द्वारा बयान दर्ज कराने तक और इलाज पूरा होने तक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अदालत में पेश होने, आरोपी की पहचान आदि करने की पूरी व्यवस्था की गई है. इसमें महिला को जुर्म के दंश से उबारने के लिए मनोचिकित्सकों की कांउसलिंग तक का इंतजाम होता है.

विकसित देशों की तर्ज पर इस तरह के इंतजाम ही कानून की सख्ती को कारगर बना सकते हैं. अन्यथा कानून की किताब में महज अपराध के लिए सजा को बढ़ा देने मात्र से अपराधों पर नकेल कसने की कल्पना करना बेमानी होगी. इसके लिए पुलिस को संवेदनशील बनाने से लेकर अदालत और अस्पतालों में भी हिंसा की शिकार महिलाओं के प्रति हितकारी वातावरण बनाना लाजमी है वरना अपराधियों की हिंसा के साथ कानून भी पीड़ित की पीड़ा को निरंतर बढ़ाने वाला साबित होता रहेगा.