1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

गांव की गोरी जरीना वहाब

३ फ़रवरी २०१३

गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा, आ के यहां रे.. सत्तर के दशक में आई फिल्म चितचोर और उसकी गोरी जरीना वहाब. गांव की गोरी ने हिन्दी के बाद दक्षिण भारतीय फिल्मों का रुख किया. डॉयचे वेले से जरीना वहाब की बातचीत.

https://p.dw.com/p/17XEm
तस्वीर: by/Bollywoodhungama

जरीना पहली बार बांग्ला फिल्म में भी काम कर रही हैं. उसी की शूटिंग के सिलसिले में कोलकाता आई जरीना ने अपने कोई चार दशक लंबे करियर को याद किया.

आप फिल्मों में कैसे आईं ?

मुझे बचपन से ही अभिनय का शौक था. पुणे में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट आप इंडिया का विज्ञापन देख कर मैंने अभिनय के प्रशिक्षण के लिए आवेदन किया था. दाखिला होने पर पुणे आ गई. उसके बाद मुंबई आ गई, उन दिनों ऋषिकेश मुखर्जी गुड्डी के लिए हीरोइन तलाश रहे थे. पुणे में उन्होंने मुझे और जया बच्चन में से किसी एक को लेने का फैसला किया. पुणे में दो दिन बिताने के बाद उन्होंने जया को फिल्म में लेने का फैसला किया. लेकिन इससे मुझे निराशा नहीं हुई. उल्टे मेरा हौसला और मजबूत हुआ. उसके बाद राजकपूर ने भी यह कहते हुए मुझे खारिज कर दिया कि आया जैसी दिखने वाली हर लड़की गुड्डी नहीं बन सकती. उसी समय मुझे देवानंद ने मौका दिया. वह इश्क इश्क इश्क में जीनत अमान की बहन के किरदार के लिए किसी अभिनेत्री की तलाश में थे. वह 1974 का साल था.

आपको बड़ा ब्रेक कब मिला ?

इश्क इश्क इश्क के कोई दो साल बाद. राजश्री प्रोडक्शन वालों ने अपनी नई फिल्म के लिए अमोल पालेकर के साथ हीरोइन के किरदार के लिए मुझे चुन लिया. बासु चटर्जी के निर्देशन वाली उस फिल्म चितचोर ने मुझे फिल्म उद्योग में स्थापित कर दिया. उसके बाद अमोल पालेकर के साथ ही आई घरौंदा ने मुझे एक अलग पहचान दी. मुझे इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर अवार्ड के लिए भी मनोनीत किया गया था.

उसके बाद आपने दक्षिण भारतीय फिल्मों में जाने का फैसला क्यों किया?

घरौंदा की कामयाबी और उसमें मिली सराहना के बाद मुझे एक तेलुगू फिल्म में अभिनेत्री का रोल मिला. संयोग से वह फिल्म सुपरहिट रही. उसके बाद मुझे तेलुगू के अलावा तमिल व मलयालम फिल्मों के ऑफर मिलने लगे. दक्षिण भारतीय फिल्मों में व्यस्त होने की वजह से हिंदी फिल्मों में काम करना लगभग बंद ही हो गया.

हिंदी फिल्मों में कब और कैसे लौटीं?

कुछ साल तक काम करने के बाद दक्षिण भारतीय फिल्में बोर करने लगीं थीं. उन सबमें एक जैसी ही भूमिका मिलती थी. उसके बाद लौटी तो आदित्य पंचोली से प्यार और फिर शादी के बंधन में बंध गई. उसके बाद रामगोपाल वर्मा की रक्तचरित्र के अलावा माई नेम इज खान और करण मल्होत्रा की अग्निपथ में काम मिला.

क्या आपको शुरूआती दिनों में कामयाबी के लिए संघर्ष करना पड़ा था?

नहीं. शायद भगवान मुझ पर मेहरबान था. किस्मत भी साथ दे रही थी. इसलिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. इसके अलावा उन दिनों आज की तरह इतनी होड़ भी नहीं थी.

आपने बालीवुड के अलावा दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी काम किया है. इन दोनों में क्या फर्क है ?

दोनों में बहुत अंतर है. दक्षिण भारत के लोग समय के बहुत पाबंद होते हैं. जितने बजे की शिफ्ट है ठीक उतने बजे सेट पर हाजिर हो जाते हैं. बालीवुड में तो किसी के समय का कोई ठिकाना नहीं होता. अब भी तकनीक भले बदल गई हो, दक्षिण भारतीय लोग समय के बेहद पाबंद हैं.

बांग्ला फिल्म में अभिनय का फैसला कैसे किया?

बंगाल के निर्देशक बेहतीन फिल्में बनाते हैं. इस फिल्म के निर्देशक नेहल दत्त बासु चटर्जी के साथ काम कर चुके हैं. उन्होंने जब मुझे पटकथा सुनाई तो मुझे लगा कि यह कहानी हट के है. पिछले कई वर्षों से इस थीम पर कोई फिल्म नहीं बनी है.

इस फिल्म में आपका किरदार कैसा है?

मैंने इसमें एक कोठा मालकिन की भूमिका निभाई है. कोठे की लड़कियां नाच-गान से ग्राहकों का दिल बहलाती हैं. मेरे जिम्मे इन लड़कियों के प्रशिक्षण का काम है. मैंने फिल्म हाथ में लेने से पहले खुद भी इस मुद्दे पर शोध किया. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि अब भी कोलकाता में शाम को ऐसी कोठियों में कुछ खास मेहमानों के लिए नाच की महफिलें सजतीं हैं.

अपने लगभग चार दशक लंबे अपने करियर आपने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं. उस दौर और अब में क्या फर्क आया है?

तकनीक का फर्क आया है. पहले ऐसी बेहतर तकनीक नहीं थी. इसके अलावा अब हर साल काफी तादाद में फिल्में बनती हैं. इससे काम के मौके बढ़ जाते हैं. लेकिन साथ ही अब हीरोइनों की तादाद भी पहले के मुकाबले कई गुनी बढ़ गई है. पहले इतनी गलाकाट प्रतिद्वंद्विता नहीं होती थी.

इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा मोंढे

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें