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गरीबी के खिलाफ लड़ाई हार रहा है मेक्सिको

९ अगस्त २०१५

दुनिया गरीबी घटाने के फैसले ले रही है. लैटिन अमेरिका में जहां ज्यादातर देश इन प्रयासों में सफल हो रहे हैं, मेक्सिको उल्टी दिशा में जा रहा है. नए सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले दो सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है.

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तस्वीर: AP

गरीबी दूर करने के विभिन्न कार्यक्रमों पर अरबों डॉलर के खर्च के बावजूद मेक्सिको में गरीबों की संख्या बढ़ रही है. जानकारों का कहना है कि पिछले साल के राजकोषीय सुधार, सरकारी नीतियों में कुप्रबंधन, धीमे आर्थिक विकास और पारिवारिक आय में ठहराव इलाके की दूसरी सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में गरीबी बढ़ने के कारण हैं. सार्वजनिक नीतियों पर शोध करने वाली संस्था की प्रमुख एडना खाइमे कहती हैं, "हमारे यहां कुछ बहुत अच्छे सामाजिक कार्यक्रम हैं, लेकिन दूसरे पटरी से उतर गए हैं. वे गरीबी दूर करने और रोजगार पैदा करने की बात करते हैं, लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकल रहा."

आलोचना के केंद्र में गांवों में सीधी मदद पहुंचाने वाले प्रोकैंपो जैसे प्रोग्राम हैं, जिसके तहत इस साल 4 अरब डॉलर की सब्सिडी दी जा रही है. लेकिन इसका मुख्य फायदा छोटे किसानों को पहुंचने के बदले उत्तरी मेक्सिको के कृषि निर्यातकों को पहुंचेगा. शुरू में यह कार्यक्रम कनाडा, मेक्सिको और अमेरिका के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते के असर से छोटे किसानों को राहत देने के लिए तैयार किया गया था.

गैस और बिजली के लिए 15 अरब डॉलर की सब्सिडी की भी आलोचना हो रही है क्योंकि वे बड़े उपभोक्ताओं को फायदा पहुंचा रहे हैं. लैटिन अमेरिका की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में 7 अरब डॉलर उत्पादन, आय बढ़ाने और रोजगार सेवा के 48 केंद्रीय कार्यक्रमों पर खर्च होते हैं. इतनी ही धनराशि प्रोस्पेरा जैसी सामाजिक समावेशी कार्यक्रमों पर खर्च होता है, जिसकी अतीत में अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों ने सराहना की है. इस कार्यक्रम के तहत बच्चों को स्कूल भेजने वाले और चिकित्सीय जांच करवाने वाले परिवारों को वित्तीय सहायता दी जाती है.

Enrique Peña Nieto 2012
राष्ट्रपति एनरिके पेन्या न्येतोतस्वीर: imago/epd

सामाजिक विकास के आंकलन पर राष्ट्रीय संस्था कोनेवाल की नई रिपोर्ट के अनुसार मेक्सिको में 12 करोड़ आबादी में से करीब 5.53 करोड़ लोग गरीबी में जीते हैं. यह संख्या 2012 के मुकाबले 30 लाख ज्यादा है और कुल आबादी का 46.2 प्रतिशत है. सर्वे में पाया गया है कि 1.2 करोड़ की आमदनी प्रति दिन 1 डॉलर से भी कम है जबकि दूसरे 1.2 करोड़ की आय 2 डॉलर प्रतिदिन से कम है. इलाके में आम तौर पर दूसरे देशों में गरीबी घट रही है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संस्था यूएनडीपी की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार मेक्सिको, ग्वाटेमाला और एल सल्वाडोर जैसे उन कुछेक देशों में शामिल है जहां ऐसा नहीं हो रहा है. यूएनडीपी के रुडोल्फो डे ला तोरे कहते हैं, "इस विकास को रोकने वाले तत्व हैं - धीमा आर्थिक विकास और खर्च का बंटवारे वाला प्रभाव न होना."

गरीबी के आंकलन में जिन बातों का ध्यान रखा जाता है उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सामाजिक सुरक्षा, घर, खाना और पारिवारिक आय शामिल है. लैटिन अमेरिका और कैरिबिक के आर्थिक आयोग ने जुलाई के अंत में मेक्सिको के इस साल के आर्थिक विकास का अनुमान 3 प्रतिशत से घटाकर 2.4 प्रतिशत कर दिया है. यह 10 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. आय के लिहाज से 5 डॉलर प्रतिदिन का मौजूदा न्यूनतम वेतन लैटिन अमेरिका में सबसे कम है. देश में गरीबी में वृद्धि न सिर्फ प्रोस्पेरा कार्यक्रम की खामियों को दिखाता है बल्कि कंजर्वेटिव राष्ट्रपति एनरीके नीटो के भूखमरी विरोधी राष्ट्रीय कार्यक्रम की खामियों को भी. इस कार्यक्रम का मकसद 400 नगरपालिकाओं में रहने वाले 37 लाख लोगों तक पहुंचना है.

खाइमे का कहना है कि इस रणनीति पर अमल करना इसकी जटिल संरचना के कारण बहुत मुश्किल काम है. खाइमे की संस्था ने 2013 में इस कार्यक्रम की शुरुआत पर ही संदेह जताया था. यूएनडीपी के डे ला टोरे कार्यक्रम की सफलता को पूरी तरह नहीं नकारते लेकिन उनका कहना है कि इसके कार्यान्वयन में सुधारों पर विचार करने की जरूरत है. वे कहते हैं, "गरीबी कम करने का सारा बोझ एक कार्यक्रम पर नहीं डाला जा सकता." सरकार की गंभीरता का पता इस बात से चलता है कि उसने अब तक अपने गरीबी विरोधी कार्यक्रम के इस साल के लक्ष्यों की घोषणा नहीं की है.

आर्थिक विकास की धुंधली संभावनाओं के बीच सरकार ने बचत नीतियों का सहारा लिया है जबकि कार्यक्रम से जुड़े लोग बजट की संरचना का पुनर्गठन करने और सामाजिक कार्यक्रमों के अमल की समीक्षा करने की मांग कर रहे हैं. खाइमे का कहना है कि यदि उत्पादकता और वेतन नहीं बढ़ते तो गरीबी घटाई नहीं जा सकती. यूएनडीपी के डे ला टोरे का कहना है कि मेक्सिको गरीबी से लड़ने के लिए आर्थिक विकास के लौटने का इंतजार नहीं कर सकता. "जिस तरह से जरूरतमंदों के लिए खर्च किया जाता है उसे बदलने की जरूरत है." चुनौती छोटी नहीं है.

एमजे/आरआर (आईपीएस)