खैबर के भूले बिसरे रास्ते
पेशावर से लंडी कोतल जाने वाले इस रेल के रास्ते को 6 साल पहले बंद कर दिया गया. ब्रिटिश काल में करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय करने वाले इस रेलवे ट्रैक को पहाड़ काट कर बनाया गया था.
बोलते खंडहर
1905 में पेशावर से लंडी कोतल के बीच रेलवे ट्रैक को बनाने का काम शुरू हुआ था, जिसे पूरा होने में 20 साल लग गए. इस पर गुजरती रेल अफगानिस्तान बॉर्डर से लगे खैबर से होकर जाती थी. 2006 और 2007 में बाढ़ के कारण जमीन के कट जाने से करीब 6 साल पहले इस रास्ते पर चलने वाली रेल को बंद करना पड़ा.
रोटी का जरिया
यहां से ट्रेन गुजरती थी तो कई दुकानें भी आबाद थीं. लेकिन अब ना तो वो खरीदार रहे और ना दुकानों की वह रौनक.
नौकरी जारी है
इन इलाकों के रेलवे स्टेशनों में ट्रेन रुक जाने से अब काम ते बाकी नहीं रहा लेकिन दफ्तर अभी भी जारी है और पगार भी बराबर हाथ में आ रही है.
साक्षी हैं पुल
50 किलोमीटर के इस फासले में 92 पुल हैं और इनमें से ज्यादातर अभी भी ठीक हालत में हैं.
नफरत के शिकार पुल
कई हिस्सों में लड़ाकों ने पुल और रेलवे ट्रैक खत्म कर दिए. नाटो विरोधियों का मकसद ब्रिटिश दौर में हुए किसी भी काम का विरोध करना है.
कहां गई चहल पहल
पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर पर बसे आखरी गांव जमरूद के इस स्टेशन पर 2007 तक अच्छी खासी रौनक रहा करती थी जब सैकड़ों आदिवासी लंडी कोतल जाने के लिए यहां ट्रेन का इंतजार किया करते थे.
गुम होता इतिहास
इस तरह की कई पुरानी सुरंगें मिट्टी और रोड़े के मलबे से ढकती जा रही हैं. अगर समय देते ध्यान नहीं दिया गया तो इतिहास की कहानी सुनाने वाले ये खंडहर भी गुम हो जाएंगे.