मिट गई एक धरोहर की आखिरी निशानी
१३ फ़रवरी २०१७प्रतिस्पर्धा के दौर में परंपराओं को सहेजना आसान नहीं होता. एक दौर में राजे-रजवाड़ों से लेकर प्रधानमंत्री और तमाम वीवीआइपीओं तक की पसंदीदा सवारी रही एम्बैसडर कार का उत्पादन तीन साल पहले ही बंद हो गया था. अब इसके ब्रांड के बिकने से यहां इसके बचे-खुचे कर्मचारियों और बंगाल के लोगों में इस कार के भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ने लगी हैं. फिलहाल यह साफ नहीं है कि पीजो इस ब्रांड का इस्तेमाल भारत में अपनी कारों के लिए करेगा या नहीं.
शान की सवारी
देश की आजादी के बाद से ही एम्बैसडर कारें सिर्फ पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की पहचान ही नहीं, बल्कि सत्ता प्रतिष्ठान की पहली पसंद बन गई थीं. हुगली जिले के उत्तरपाड़ा स्थित हिंदुस्तान मोटर्स के कारखाने से निकलने वाली एम्बैसडर एक कार से ऊपर उठ कर एक परंपरा और उसके बाद धीरे-धीरे एक धरोहर बन गई थी. लेकिन तीन साल पहले इस कारखाने में तालाबंदी के साथ ही इस परंपरा या धरोहर के पहिए थम गए थे.
इस परंपरा के खत्म होने की आहट वैसे तो बीते कोई एक दशक से सुनाई दे रही थी. बाजार में दूसरी कारों की भरमार से बढ़ती प्रतिद्वंद्विता, सत्ता प्रतिष्ठान की बदलती पसंद और मजदूर असंतोष की वजह से कंपनी का घाटा लगातार बढ़ता ही जा रहा था. आखिर में वर्ष 2014 में कंपनी ने संयंत्र पर तालाबंदी का नोटिस लगा दिया था. इसके साथ ही संयंत्र में काम करने वाले लगभग ढाई हजार मजदूरों का भविष्य भी अधर में लटक गया. उनमें से कइयों को तो वीआरएस देकर निपटा दिया गया. लेकिन कई लोग अब भी संयंत्र के दोबारा खुलने की आस लगाए बैठे थे.
सीके. बिड़ला ग्रुप की मिल्कियत वाली हिंदुस्तान मोटर्स के एक प्रवक्ता कहते हैं, "हमने एम्बैसडर ब्रांड और ट्रेड मार्क की बिक्री के लिए पीजो एसए ग्रुप के साथ एक करार पर हस्ताक्षर किए हैं. इस फ्रेंच कंपनी के तौर पर हमें इस ब्रांड का समुचित खरीददार मिल गया है. प्रवक्ता ने बताया कि इस सौदे से मिली रकम कर्मचारियों के बकाए के भुगतान पर खर्च की जाएगी.
सात दशक पुराना सफर
जापानी कंपनी टोयटा के बाद एशिया की इस दूसरी सबसे पुरानी कार कंपनी की स्थापना आजादी से कोई पांच साल पहले वर्ष 1942 में हुई थी. तब से कोई पांच दशकों तक कार बाजार पर इन कारों का एकछत्र राज रहा. लेकिन नब्बे के दशक के मध्य में कंपनी की स्थिति डांवाडोल होने लगी. वर्ष 2004-05 में इसकी हालत खस्ता हो गई और वित्तीय घाटा लगातार बढ़ने लगा. कारखाने की स्थिति सुधारने के लिए कंपनी ने फैक्टरी परिसर की 314 एकड़ अतिरिक्त जमीन भी बेच दी लेकिन हालात नहीं बदले. वर्ष 2012 में कंपनी को बीमार घोषित कर भारतीय औद्योगिक पुनर्गठन बोर्ड (बीआईएफआर) के हवाले कर दिया गया. मार्च, 2014 में खत्म हुए वित्तीय वर्ष के दौरान यह घाटा बढ़ कर छह सौ करोड़ तक पहुंच गया था. इस संयंत्र को बचाने के लिए कंपनी ने चेन्नई स्थित संयंत्र को भी बेच दिया था. बावजूद उसके हालात जस के तस ही रहे.
अस्सी के दशक तक देश में सालाना 24 हजार एम्बैसडर कारें बिकती थीं. लेकिन नब्बे के दशक के मध्य में यह तादाद गिर कर 12 हजार से भी कम रह गई. अगले एक दशक के दौरान इसमें भी आधी गिरावट आ गई. उसके बाद संयंत्र को चलाना घाटे का सौदा बन गया. वर्ष 2009 के बाद के पांच वर्षों के दौरान एम्बैसडर कारों की ज्यादातर बिक्री कोलकाता में टैक्सी के तौर पर इस्तेमाल के लिए ही हुई. लेकिन बाद में दूसरी कंपनियों के इस क्षेत्र में घुसने की वजह से कंपनी को और झटका लगा. उत्पादन के आखिरी कुछ महीनों के दौरान इस संयंत्र में रोजाना महज पांच कारें ही बन रही थीं. इसके मुकाबले दूसरे भारतीय आटोमोबाइल संयंत्रों में रोजाना औसतन 160 कारें बनती हैं.
बिजनेस की लापरवाही
आटोमोबाइल विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनी ने एम्बैसडर कारों की क्वालिटी पर खास ध्यान नहीं दिया. कार की डिजाइन भी जस की तस रहीं और दूसरी सुविधाएं भी. इस वजह से वह प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले बाजार में नहीं टिक सकी. पुरानी कारों के संग्रहकर्ता शालू चौधरी कहते हैं, "अगर कंपनी ने पिछले साठ वर्षों के दौरान इसकी क्वालिटी में निरतंर सुधार किया होता तो यह भारत की रॉल्स रॉयस बन सकती थी."
यह सत्ता प्रतिष्ठान, अभिनेताओं, नौकरशाहों और बड़े व्यापारियों की पहली पसंद थी. विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के बावजूद कंपनी ने संयंत्र के आधुनिकीकरण और अपनी कारों की डिजाइन में कोई सुधार करने में दिलचस्पी नहीं ली. इसी वजह से यह खरीदारों की नजरों से उतरती रही. पीजो कंपनी नब्बे के दशक में लगभग तीन साल भारत में थी. तब इसकी कारों की असेंबलिंग पाल (PAL) की ओर से की जाती थी. कंपनी ने बीते साल एलान किया था कि वह वर्ष 2018 में दोबारा भारतीय बाजारों में कदम रखेगी. इससे पहले उसने सीके. बिड़ला के साथ चेन्नई संयंत्र के लिए एक साझा कंपनी बनाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इसके तहत पीजो उस संयंत्र को अपनी उत्पादन यूनिट के तौर पर इस्तेमाल करेगी.
हिंद मोटर कालोनी में चिंता
अब एम्बैसडर ब्रांड के बिक जाने के बाद इस कंपनी के बचे-खुचे कर्मचारियों में भविष्य को लेकर काफी संशय. है. हुगली जिले के उत्तरपाड़ा में कंपनी के कर्मचारियों के लिए बाकायदा एक नगर बसाया गया था. वर्ष 1986 से ही यहां काम करने वाले राजकुमार शर्मा कहते हैं, "अब पता नहीं हमारा क्या होगा? हमें अपनी बकाया रकम मिलेगी या नहीं? और मिलेगी भी तो कब तक?" यहां एसी संयंत्र में काम करने वाले चंद्रभूषण कहते हैं, "कंपनी ने अगर समय रहते डिजाइन और तकनीक में बदलाव किया होता तो यह धरोहर हमारे हाथों से नहीं निकलती."
इस कालोनी के पास साइकिल की मरम्मत की दुकान चलाने वाले राम आसरे यादव ने कंपनी का स्वर्णकाल भी देखा है और अब इसकी मौत के भी गवाह बन गए हैं. यादव कहते हैं, "एक दौर में इस कार ने पूरी दुनिया में भारत और हिंद मोटर की पहचान बनाई थी." वह बताते हैं कि संयंत्र की धीमी मौत का सिलसिला तो कोई दो दशक पहले ही शुरू हो गया था. तीन साल पहले तो महज उसका डेथ सर्टिफिकेट जारी किया गया. कंपनी के सैकड़ों कर्मचारियों को तो वीआरएस दे दिया गया था. लेकिन भविष्य में बेहतरी की आस में मुठ्ठी भर कर्मचारियों ने तीन साल पहले वीआरएस नहीं लिया था. ऐसे ही एक कर्मचारी सुनील पासवान कहते हैं, "हम तो न घर के रहे न घाट के." एम्बैसडर की आखिरी निशानी बिकने के साथ ही उनके मन से उम्मीद की आखिरी किरण भी हमेशा के लिए बुझ गई है.