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दिल्ली के विकल्प

१० दिसम्बर २०१३

दिल्ली में चुनाव के बाद बहुमत के आस पास टिकी दो पार्टियों ने सरकार न बनाने का फैसला किया है. इसके बाद भारत की राजधानी संवैधानिक और कानूनी सवालों से जूझ रही है.

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तस्वीर: DW/A. Chatterjee

ऐसे में बीजेपी का सत्ता के करीब पहुंच कर भी दूर रहना मजबूरी बन गई है. जोड़ तोड़ की राजनीति के अपने कौशल को वह चाह कर भी नहीं दिखा पा रही है. इसके पीछे उसकी कुछ मजबूरियां हैं. कांग्रेस के आठ में से चार मुस्लिम विधायक हैं और इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो बीजेपी की गोद में बैठकर अपना सियासी सफर खत्म करने का जोखिम मोल ले. बाकी चार विधायक कांग्रेस के पुराने मजबूत सिपाही हैं, जिनका पाला बदलना आसान नहीं. बीजेपी के लिए दूसरा आसान निशाना आप हो सकती थी लेकिन उसके किसी भी विधायक को तोड़ने की कोशिश न सिर्फ बीजेपी को बल्कि स्वयं उस विधायक को खासी मंहगी पड़ सकती है जो ईमानदारी और साफ सुथरी राजनीति का वादा कर चुनाव जीता है.

दलबदल कानून के दायरे में आप

हालांकि शुरू में समझा जा रहा था कि आप दलबदल कानून के दायरे से बाहर है इसलिए उसे बीजेपी आसान निशाना बना सकती है. मगर यह भ्रम टूट गया है. संविधानविद सुभाष कश्यप का कहना है कि आप फिलहाल पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दल जरूर है लेकिन फिर भी दलबदल कानून के दायरे में है. उनका कहना है कि संविधान की दसवीं अनुसूची में स्पष्ट उल्लेख है कि चुनाव लड़ने वाली मान्यता प्राप्त या गैर मान्यता प्राप्त, हर पार्टी दलबदल कानून की परिधि में आती है.

Indien Wahlen in Delhi Arvind Kejriwal
कांग्रेस बीजेपी के सिरदर्द केजरीवालतस्वीर: Reuters

इसके अलावा लोकसभा और दिल्ली विधानसभा के 35 साल तक सचिव रहे सुदर्शन शर्मा का कहना है कि चुनाव में चार प्रतिशत से अधिक मत हासिल करने या छह प्रतिशत सीट जीतने वाले दल को चुनाव आयोग राज्य स्तरीय पार्टी की मान्यता देता है. विधायी मामलों के जानकार शर्मा का कहना है कि आयोग द्वारा आप के विधायकों को चुनाव जीतने का प्रमाणपत्र दिए जाने के साथ ही राज्यस्तरीय पार्टी की मान्यता भी मिल जाएगी.

ऐसे में आप के कम से कम एक तिहाई विधायकों को तोड़कर ही बीजेपी सत्ता में आने का सपना पूरा सकती है. यानी साफ सुथरी राजनीति के लिए देश भर में उम्मीद जगा रही दिल्ली में आप के कम से कम 10 विधायक तोड़ना किसी भी दल के लिए आत्मघाती साबित होगा. खास कर तब जबकि देश लोकसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है.

आगे क्या विकल्प

फिलहाल आप के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण और टीम अन्ना की पूर्व सदस्य किरण बेदी सरकार बनने की संभावनाओं के प्रतीक बन कर उभरे हैं. भूषण ने आप की मांग के अनुरूप 29 नवंबर तक दिल्ली का जनलोकपाल बनाने की मांग बीजेपी द्वारा स्वीकार करने की शर्त पर समर्थन देने की पहल की है. जबकि किरण बेदी ने आप और बीजेपी में अपने संबंधों का हवाला देकर दोनों दलों के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर गठबंधन सरकार बनवाने में मदद करने की बात कही है. मगर आप के विधायक दल की सोमवार शाम हुई बैठक के बाद केजरीवाल ने अपने पुराने रुख पर कायम रहने की बात कह कर इन संभावनाओं को फिलहाल धूमिल कर दिया है.

गेंद अब उपराज्यपाल के पाले में है लेकिन सियासत के बदलते मिजाज का देश भर को अहसास करा रही दिल्ली मौजूदा हालात को देखते हुए एक बार फिर चुनाव की खुमारी में डूबने को बेताब दिखती है.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ