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क्या हैं गणतंत्र के मायने?

रिपोर्टः सचिन गौड़ (संपादनः आभा मोंढे)२६ जनवरी २०१७

श्रीनगर से श्रीपेरम्बदूर तक और गांधीनगर से गुवाहाटी तक फैले और इतनी विविधताओं को अपने में समेटे देश को क्या जोड़ता है..क्या है वो मूल तत्व...क्या है इसकी आत्मा. क्या है जो विविध भाषाओं, धर्मों वाले भारत को जोड़े रखता है.

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Indien Schulkind mit Nationalflagge
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Nv

इंडिया दैट इज़ भारत..29 राज्य, 7 केंद्र शासित प्रदेश, 1.2 अरब निवासी, बहुधर्मी, चार प्रमुख धर्मों की उदयभूमि, 20 से ज़्यादा मान्यता प्राप्त भाषाएं, 1652 बोलियां, अनगिनत संप्रदाय, परम्परा, रीति रिवाज, त्यौहार.

ब्रिटिश शासन से आज़ाद होने के बाद अपना भाग्यविधाता ख़ुद होने का एहसास लोगों के मन को गुदगुदा रहा था. मन उड़ना चाहता था और उम्मीदों का कोई छोर नहीं था. लेकिन इसी मधुर एहसास में एक चुनौती भी छिपी थी.

देश में एक बहस जन्म ले रही थी, नए राष्ट्र के निर्माण से जुड़े कई सवाल तैर रहे थे...एक राष्ट्र की अवधारणा क्या हो, नया राष्ट्र किस भाषा में बात करे, किन राजनीतिक और आर्थिक मॉडलों को अपनाए, किन मूल्यों को स्थापित करे और किन्हें नकारा जाए.

आज़ादी की चुनौती

क़रीब सात दशक पहले का भारतीय समाज बेहद पिछड़ा, जटिल, निर्धन और विकास से कटा हुआ था. लंबी ग़ुलामी के बाद जनता के मन में खुली हवा में सांस लेने की उत्कंठा तो थी लेकिन अपने अधिकारों के प्रति सजगता नहीं थी..ग़रीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोज़गारी, सांप्रदायिक तनाव, भरपेट खाना की कमी आज़ादी मिलने की ख़ुशी में सेंध लगा रही थीं.

जहां जाकर याद आ जाती है आजादी

संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके.

ज़रूरत एक नए गणतंत्र में नागरिकों को बराबरी का एहसास कराने की भी थी..गणतंत्र यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसमें असली ताक़त राजा के पास नहीं बल्कि जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों में हो.

प्राचीन भारत में कई उदाहरण ऐसे मिलते हैं जब शासन की बागडोर राजा के हाथों में होती थी उसके बावजूद क़ानून राजा नहीं बनाता था. क़ानून शिक्षा के केंद्रों में बनाया जाता था. ख़ासकर बड़े केंद्रों में. यानी भारत गणतांत्रिक व्यवस्था से अपरिचित नहीं था.

सबकी भागीदारी

9 दिसम्बर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक ही अपने आप में सबूत है कि किस नज़रिए से भारतीय गणतंत्र की परिकल्पना तैयार की जा रही थी. संविधान सभा में विभिन्न प्रांतों के सदस्यों के अलावा, रियासतों के प्रतिनिधि भी हिस्सा ले रहे थे..आम जनता से भी अपने सुझाव भेजने के लिए कहा गया था यानी शुरूआत से ही लक्ष्य एक ऐसे गणतंत्र की स्थापना करना था जिसमें समाज के हर तबके की भागीदारी हो.

देखिए गणतंत्र दिवस परेड की झलक

संविधान सभा में विभिन्न जातियों, धर्मों, आर्थिक, राजनीतिक विचारों के लोग शामिल थे और सामाजिक आधार को फैलाने की कोशिश की गई थी ताकि भारत अपने आप में जिस तरह से अद्वितीय विविधता को समेटे है उसी के अनुरूप नए गणतंत्र का निर्माण हो सके..

भारतीय संविधान नैतिक दूरदृष्टि, राजनीतिक परिपक्वता और क़ानूनी कौशल का परिणाम था और इससे राष्ट्रीय और सामाजिक स्तर पर क्रांति की शुरुआत हुई थी.

बहुलता का सम्मान

गणतांत्रिक भारत में देश की विविधता और जटिलता को एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपनाया गया और ऐसा करते समय विभिन्न क्षेत्रों में बहुलतावाद का सम्मान किया गया..राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र में संघीय ढांचे और धार्मिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता के सहारे एक नए गणतंत्र के मायनों को स्पष्ट किया गया.

गणतंत्र के गठन के बाद से ही नीति निर्धारकों की प्राथमिकता देश के संघीय ढांचे को बरक़रार रखना रही है. आज़ादी के बाद के सालों में भारत की विविधता और विभिन्नता को चुनौती देते कई संकट खड़े हुए..कई मौक़ों पर देश के विघटन की आशंका जताई गई, राजनीतिक व्यवस्था पर अविश्वास जताया गया..

सबको अधिकार

जवाहर लाल नेहरू की मौत, आपात काल के लागू होने, अलगाववादी आंदोलनों में देश घिरा नज़र आया.इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद राजनीतिक अनिश्चितता पैदा हुई.लेकिन संकट के ऐसे ही अवसरों पर लोग मन में धीर धरे और गणतंत्र की मूल भावना को अपने मन में लिए संकल्प से भरे नज़र आए और देश एक बार फिर उठ खड़ा हुआ.

Deutschland Indien KfW Bewässerung in Indien
ग़रीबी अब भी बड़ी चुनौतीतस्वीर: KfW-Bildarchiv

भारतीय गणतंत्र सत्ता के केंद्र दिल्ली में बैठे व्यक्ति को भी वही अधिकार देता है अधिकार अबूझमाड़ में रहने वाले व्यक्ति के पास हैं..एक बेहद साधारण नागरिक भी समझता है कि उसके वोट की क़ीमत है और सत्ता के बनने या गिरने में उसका वोट मायने रखता है..

इसी गणतंत्र में ग़रीब किसान का बेटा प्रधानमंत्री बनता है और एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति बनता है..धर्मनिरपेक्ष भारत में प्रधानमंत्री अल्पसंख्यक समुदाय से है, सुप्रीम कोर्ट का जज दलित है तो सबसे बड़ी पार्टी की नेता ईसाई हैं..

ये कहना ग़लत होगा कि गणतंत्र में समस्याएं नहीं हैं. समानता के तमाम वादों के बावजूद व्यवहारिक दिक्कतें कई बार निराशा पैदा करती हैं, चुनौतियां पहाड़ी सी खड़ी नज़र आती हैं लेकिन उसके लिए राजनीतिक वर्ग और जनता की बेरुख़ी को ही ज़िम्मेदार दिखती हैं. संविधान तो हर एक को बराबरी का दर्जा देता है और आगे बढ़ने के समान अवसर मुहैया कराने का आश्वासन भी.. लगभग सात दशक पहले इसी विज़न के साथ गणतंत्र की नींव रखी गई थी और भारत का नागरिक होने के मायने वही तय कर रहा है..