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क्या रंग लाएगी गौरक्षा पर टूटी चुप्पी

८ अगस्त २०१६

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतनी लंबी चुप्पी तोड़ते हुए अब क्यों बताया असली गौसेवकों और फर्जी गौरक्षकों के बीच फर्क और क्यों सामने आई दलितों के प्रति सहानुभूति.

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Indien World Culture Festival in Neu-Delhi
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाय के नाम पर मची मार-काट पर अपनी साल भर पुरानी चुप्पी तोड़ ही दी और कह डाला कि लोग गौरक्षा के नाम पर धंधा कर रहे हैं. रात में जुर्म करते हैं और सुबह गौरक्षक के कपड़े पहन कर उत्पात मचाते हैं. उन्होंने असली गौसेवकों, गौभक्तों और तथाकथित गौरक्षकों के बीच भी फर्क किया और दलितों के प्रति सहानुभूति जताते हुए यहां तक कह डाला कि अगर मारना है तो मुझे गोली मार दो लेकिन मेरे दलित भाइयों को कुछ न कहो.

क्या ये दिल की गहराइयों से निकली बात है या एक ऐसे राजनीतिक नेता के घड़ियाली आंसू हैं जो दो साल में ही अपनी बात से पलट जाने, अपनी कही बात को भुला देने और नाटकीय संवादों के जरिये हर सभा को चुनावी सभा में बदल देने के लिए कुख्यात हो चुका है? कहीं यह एक ऐसे राजनीतिक नेता की पैंतरेबाजी तो नहीं है जो हर तरफ से घिरता जा रहा है और जिसे दलित-मुस्लिम एकता का एक ऐसा खतरा नजर आ रहा है जो उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात में होने जा रहे विधानसभा चुनावों का गणित गड़बड़ा सकता है? कहीं ये एक ऐसे प्रधानमंत्री के उद्गार तो नहीं हैं जिसे अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि की कुछ ज्यादा ही चिंता रहती है और जिसकी अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी थू-थू हो रही है?

Indien Protest gegen den Lynchmord an Mohammed Akhlaq
तस्वीर: Reuters/S. Andrade

अभी पिछले सप्ताह बुधवार को शीर्षस्थ अमेरिकी दैनिक न्यूयॉर्क टाइम्स ने संपादकीय लिखकर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में गौरक्षा के नाम पर बढ़ रही गुंडागर्दी और मुसलमानों और दलितों पर हो रही हिंसा पर गहरी चिंता जताई और उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक और झारखंड में दो मुस्लिम पशु व्यापारियों की गाय के नाम पर की गई हत्या, हैदराबाद में दलित रोहित वेमुला की आत्महत्या और गुजरात के ऊना में गौरक्षकों की भीड़ द्वारा सरेआम पुलिस चौकी के सामने लोहे की छड़ों से पिटाई की घटनाओं का हवाला देते हुए मोदी के मौन को “निर्लज्ज चुप्पी” बताया.

न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह भी याद दिलाया कि बीजेपी के जाने-माने नेता भी गौरक्षा के नाम पर हो रही इस हिंसा को उकसाने का काम करते रहे हैं. इसका नतीजा इस रूप में सामने आया है कि गुजरात में दलितों ने मृत पशुओं का चमड़ा उतारने और उन्हें ठिकाने लगाने का काम करना बंद कर दिया है.

क्या यह संयोग मात्र है कि यह संपादकीय छपने के दो दिन बाद ही मोदी ने अपनी चुप्पी तोड़ दी? लेकिन जैसा कि विश्व हिन्दू परिषद पर प्रामाणिक शोध करके पुस्तक लिखने वाली मंजरी काटजू ने स्पष्ट किया है, काफी लंबे समय से परिषद तीन प्रतीकों भारतमाता, गंगामाता और गौमाता को केंद्र में रखकर प्रचार कर रही है और उसे पूरी आशा है कि इनके माध्यम से वह समूचे हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधने में सफल होगी और हिन्दुत्व-आधारित राष्ट्रीयता के निर्माण का अपना सपना पूरा कर सकेगी.

लेकिन समस्या यह है कि जहां पहले इस अभियान के निशाने पर केवल मुस्लिम और ईसाई समुदाय था, वहीं अब इसके निशाने पर दलित भी आ गए हैं जो औपचारिक रूप से तो हिन्दू समाज का अंग हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों की कोशिश रही है कि दलित हिन्दू समाज से छिटक कर दूर न चले जाएं और किसी और धर्म को न अपना लें.

हालांकि पिछले कुछ दशकों में उभरा दलित नेतृत्व दलितों की हिन्दू समाज के भीतर मान्यता के प्रश्न को कतई महत्व नहीं देता, संघ परिवार की कोशिश यही रही है लेकिन इसे सवर्ण जातियों की ओर से कोई खास समर्थन नहीं मिल पाया है. उत्तर प्रदेश और पंजाब में तो दलितों की ओर से बीजेपी को ख़ासी टक्कर मिलेगी ही, अब गुजरात में भी दलितों का विरोध उग्र होता जा रहा है. ऐसे में नरेंद्र मोदी ने अपनी चुप्पी तोड़ कर दलितों के प्रति प्रेम का इजहार किया है. लेकिन अधिक संभावना इसी बात की लग रही है कि यह प्रेम इकतरफा ही साबित होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार