क्या चुनेगा भारत: आत्महत्या या आत्मसुधार
३ जून २०१६इस वक्त यूरोप, अमेरिका और भारत में बड़े स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट चल रहे हैं. हर देश निवेशकों को अपनी तरफ खींचना चाहता है. निगाहें तकनीकी रूप से समृद्ध जर्मन निवेशकों पर भी हैं. शहरी विकास मंत्री वैंकया नायडू के साथ बर्लिन पहुंचे भारतीय प्रतिनिधि मंडल की मुलाकात जर्मन कारोबारियों से हुई. नायडू ने एक बार फिर जर्मन निवेशकों को पारदर्शिता का भरोसा दिलाया. लेट लतीफी की शंकाओं को दूर करने के लिए उन्होंने "सिंगल विंडो क्लीयरेंस" की बात भी की.
इसके बाद बारी आई स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तीन प्रतिनिधियों की. कोच्चि, इंदौर और भुवनेश्वर के प्रतिनिधियों को निवेशकों के सामने अपनी योजनाएं सामने रखनी थीं. प्रजेंटेशन के माध्यम से भुवनेश्वर और इंदौर निवेशकों को अपनी योजना समझाने में काफी हद तक कामयाब रहे, लेकिन बर्लिन पहुंचे कोच्चि महानगरपालिका के कोर्पोरेशन सचिव अमित मीणा की नाकाफी तैयारी सामने आ गई. एक ऐसे वक्त में जब यूरोप और अमेरिका से होड़ छिड़ी हो तब निवेशकों के सामने खराब तैयारी से जाना, बहुत अच्छी बात नहीं है. पर्यटन और सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध कोच्चि बहुत जबरदस्त ढंग से साढ़े सात मिनट में खुद को निवेशकों की आंखों का तारा बना सकता था, लेकिन मौका का भरपूर फायदा नहीं उठाया गया.
जर्मन कारोबारी बार बार यह सवाल पूछ रहे थे कि कूड़ा प्रबंधन और वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में निवेश करने वाले मुनाफा कैसे कमाएंगे. अपना होमवर्क करके आए निवेशकों को पता था कि भारत में पानी पर कैसी राजनीति होती है. 24 घंटे शुद्ध पेयजल मुहैया कराने की व्यवस्था भी, क्या इसी राजनीति की बलि तो नहीं चढ़ेगी. हर तरह के कचरे का निस्तारण करने के लिए जरूरी तकनीक महंगी है, ऐसे में अगर लोगों का सहयोग या राजनैतिक समर्थन न मिले तो जाहिर है निवेशकों को मुश्किल होगी, यह शंका भी मन में थी.
भारतीय राजनीति को देखते हुए यह शंकाएं वाजिब भी हैं. एक ऐसा देश जहां सुविधा देने वाले से ज्यादा रियायत देने वाले नेताओं को पंसद किया जाता हो या फिर कॉरपोरेट जगत के प्रभाव को चुनावी मुद्दा बनाया जाता हो, वहां जाने से पहले निवेशकों की दुविधा लाजिमी है. उदाहरण के लिए बड़े पैमाने पर शहर का गंदा पानी साफ करने वाली प्लाज्मा तकनीक को ही लें. इस अत्याधुनिक तकनीक की लागत 4 से 6 करोड़ यूरो यानि करीबन तीन से साढ़े चार अरब रुपये है. इतने बड़े निवेश के लिए कंपनी को बड़ा कर्ज लेना होगा. उसे अपने कर्मचारियों को तनख्वाह भी देनी होगी. साथ ही मुनाफा भी कमाना होगा ताकि वो रिसर्च को आगे बढ़ा सके, वरना वह अंतराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएगी. जाहिर है कंपनी इसकी कीमत भी वसूलेगी, घाटा झेलना या दीवालिया होना किसे अच्छा लगता है!
भारत के पास वॉटर ट्रीटमेंट और कूड़ा प्रबंधन के लिए कोई तकनीक नहीं है. भारत को विदेशी विशेषज्ञों की मदद लेनी ही होगी. दूसरी तरफ कंपनियों की मनमानी भी नहीं होनी चाहिए. आम लोगों के अधिकारों की रक्षा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए. अब यह भारतीय नेताओं पर है कि वे इन विकराल समस्याओं से मिलकर निपटते हैं, या बिकी हुई सरकार जैसे नारे लगाकर आवाम को आक्रोशित करते हैं.
आम राय बनाकर आम नागरिकों और निवेशकों, दोनों के हितों की रक्षा की जा सकती है. लेकिन उस पर हर राजनैतिक दल को अडिग रहना होगा. भारत का स्टील उद्योग, अंतरिक्ष एजेंसी और भारी उद्योग विदेशी मदद से शुरू हुआ और आज बेहद सफल है. मौजूदा दौर की परेशानियों को भी इसी तरह संतुलित रास्ता अपनाकर हल किया जा सकता है. लेकिन अगर भारत इसमे नाकाम हुआ तो सड़ चुकीं नदियां, जगह जगह कूड़े का अंबार, आबो हवा में पसरती घुटन, देश का इन्हीं से जूझता हुआ आत्महत्या की ओर बढ़ेगा.