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लोकतंत्र को मजबूत करने की जरूरत

महेश झा२१ जनवरी २०१६

यदि केंद्र के अधिकारी राज्यों के अधिकारियों को तंग करे और राज्य के अधिकारी इसका उलटा, तो देश की नौकरशाही का क्या होगा? यही सवाल संवैधानिक संस्थाओं के साथ भी है. वे कब करेंगी अपने संबंधों पर चर्चा, पूछ रहे हैं महेश झा.

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तस्वीर: picture-alliance/AFP/M. Sharma

शक्ति का विभाजन लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है. विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं लोकतंत्र को मजबूती देने वाले चार पाए की तरह है. हर किसी की अपनी जिम्मेदारी है, लेकिन कोई भी दूसरे को कमजोर कर अकेला बोझ नहीं उठा सकता. इसलिए एक दूसरे को मजबूत करना कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों की ही जिम्मेदारी है. जटिल होते विश्व में मीडिया लोकतंत्र का चौथा पाया बनकर उभरा है. उसकी अब तक संवैधानिक भूमिका नहीं है, इसलिए उसे जिम्मेदार और मजबूत बनाना और ज्यादा जरूरी है.

भारत पर नजर रखने वाला कोई भी प्रेक्षक बिना ज्यादा सोचे समझे कह सकता है कि वहां संस्थाओं के बीच होड़ सी चल रही है. सभी अपना हक और दावा साबित करने में लगे हैं, और इस प्रक्रिया में खुद अपने को और दूसरे संस्थानों को कमजोर कर रहे हैं. दिल्ली और केंद्र का झगड़ा हो, मुख्यमंत्री के निजी सचिव के दफ्तर पर छापामारी हो, लालू यादव के खिलाफ मुकदमे वापस लेना हो या सर्वोच्च अदालतों के जज की नियुक्ति की प्रक्रिया हो, एक के बाद एक मामले गिनाए जा सकते हैं जिनमें दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सम्मान का अभाव दिखता है, यहां तक कि संदेह भी झलकता है.

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महेश झा

यदि केंद्र का अधिकारी राज्यों के अधिकारियों को तंग करने लगे और राज्य का अधिकारी केंद्रीय अधिकारियों के दोस्तों और परिजनों को, तो देश की नौकरशाही का क्या होगा? गौरतलब बात यह है कि केंद्र के अधिकारी भी राज्यों से ही आते हैं. यदि राजनीतिक दल एक दूसरे का सम्मान नहीं करेंगे तो वे संविधान की रक्षा कैसे करेंगे, जिसकी जिम्मेदारी उन्हीं पर है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के दफ्तर पर छापे के बाद सीबीआई कोर्ट का हाल का फैसला इसे स्पष्ट रूप से दिखाता है.

देश उलझन में लगता है. अपने काम को बेहतर बनाने के बदले हर कोई दूसरे के काम की मीन मेख निकालता, उसमें हस्तक्षेप करता दिखता है. अगर संस्थानों के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या हो और सही-गलत का फैसला ताकत के बल पर करने के बदले आपसी सहमति से हो या इसका अधिकार अदालतों के पास हो तो बहुत सारा हस्तक्षेप यूं भी खत्म हो जाएगा. इसके लिए पुलिस जांच और अदालतों की प्रक्रियाओं को भी आसान बनाना होगा, ताकि उससे नागरिकों को डर नहीं लगे, जैसे शायद रोहित वेमुला को लग रहा था. वह सामान्य नागरिक प्रक्रिया का हिस्सा हो.

और हां, नागरिक सार्वभौम है. वह मालिक है, अधिकारी उसके मालिक नहीं हैं, उसके सेवक हैं. इस बात का ध्यान थाने के अधिकारी से लेकर हर दफ्तर, हर यूनिवर्सिटी और हर मंत्रालय को रखना होगा. लोकतंत्र की ताकत जनता से आती है. जनता आत्मनिर्भर होगी तभी लोकतंत्र मजबूत होगा, और बना रहेगा.