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कैसे निपटें इंटरनेट से फैलते कट्टरवाद से

६ जून २०१७

आतंकी हमलों का निशाना बनने वाले दुनिया के तमाम देशों में इंटरनेट कंपनियों से और जिम्मेदार बनने और कट्टरवादी गुटों के प्रचार प्रसार को रोकने में अहम भूमिका निभाने का आह्वान किया जा रहा है.

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Kind spielt Videospiel
तस्वीर: picture-alliance/Bildagentur-online/AGF-Foto

ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि असली दुनिया में जैसे जैसे सख्ती हो रही है, आतंकी समूह कोड वाले संदेश भेजने और नये रंगरूटों की भर्ती के लिए इंटरनेट का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में बेव पर आतंक को रोकने के लिए क्या कुछ किया जा रहा है, देखिए.

कैसे रोकती हैं फेसबुक, ट्विटर जैसी कंपनियां

कट्टरवादी वीडियो और आतंक फैलाने वाली सामग्री को इंटरनेट के माध्यम से फैलने से कैसे रोका जाए. इंटरनेट कंपनियां इसके लिए काफी सारी तकनीक और कुछ इंसानों की टीम का इस्तेमाल करती हैं. कंपनी के यह लोग समीक्षक के तौर पर काम करते हैं और किसी आपत्तिजनक पोस्ट के दिखने पर पहले उसे फ्लैग करते हैं और फिर आतंक का समर्थन करने वाली ऐसी पोस्ट मिटा देते हैं.

उदाहरण के लिए, गूगल का कहना है कि उसने अपने प्लेटफॉर्म का गलत इस्तेमाल करने वालों को रोकने के इस काम में हजारों लोगों को लगाया हुआ है. फेसबुक, ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट और यूट्यूब ने 2016 के अंत में एक साथ मिल कर साझा इंडस्ट्री डाटाबेस बनाने पर सहमति बनायी. इसमें ऐसे लोगों के डिजिटल फिंगरप्रिंट, तस्वीरें और वीडियो रखे जाएंगे, जो आतंकी गुटों का समर्थन करते हैं. मार्च में लंदन के आतंकी हमले के बाद गूगल और अन्य तकनीकी कंपनियों ने भी आतंकवादरोधी समूह बनाने का फैसला किया.

ट्विटर का कहना है कि उसने 2016 की आखिरी छमाही में कुल 3,76,890 अकाउंट ब्लॉक किये. यह सब आतंक का समर्थन करने वाले थे. इनमें से दो-तिहाई की पहचान ट्विटर के अपने टूल से हुई. केवल दो फीसदी अकाउंट ही किसी सरकार के कहने पर हटाये गये. फेसबुक कहता है कि वह किसी आने वाले खतरे का अंदेशा होने पर इसके बारे में सुरक्षा अधिकारियों को सूचित कर देता है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/W. Kastl

क्या करने से मना करती हैं कंपनियां

2015 में कैलिफोर्निया के सेंट बैर्नाडिनो में हुई सामूहिक गोलीबारी की घटना के बाद और मार्च 2017 में लंदन के वेस्टमिंस्टर हमले के बाद - अमेरिकी और ब्रिटिश सरकारों ने कुछ लोगों के पासवर्ड से सुरक्षित अकाउंट्स जानने चाहे थे. वे हमले को अंजाम देने वाले आतंकियों और उनके साथियों के बीच हुई बातचीत पढ़ना चाहते थे. लेकिन एप्पल और व्हाट्सऐप कंपनियों ने उनके अकाउंट इनक्रिप्टेड होने के कारण ऐसा करने से मना कर दिया. हालांकि दोनों सरकारों ने किसी तरह यह जानकारी हासिल कर ली. लेकिन टेक कंपनियां इनक्रिप्शन वाले मामलों में किसी भी यूजर की डाटा सुरक्षा को जोखिम में नहीं डालना चाहतीं. बैंक अकाउंट, क्रेडिट कार्ड से लेन देन इन सभी कामों में इनक्रिप्शन का इस्तेमाल होता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ी या निजी सुरक्षा

सवाल यह है कि क्या इनक्रिप्टेड डाटा का खुलासा करने के लिए टेक कंपनियों पर दबाव डाला जाना चाहिए. साइबर सुरक्षा के कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि इनक्रिप्शन को कमजोर करने से आम लोग ज्यादा असुरक्षित हो जाएंगे. जबकि आतंकवादी तो अपने संवाद के लिए कहीं और गहरे साइबर स्पेस में चले जाएंगे या किसी और साधन का इस्तेमाल करेंगे. वहीं कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि युद्ध जैसी स्थिति में सरकारों को निजी अधिकारों का उल्लंघन करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा का काम करने देना चाहिए.

आप ही बताइए कि क्या किसी व्यक्ति की निजता उसकी जान से भी बड़ी हो सकती है. आप नीचे कमेंट बॉक्स में अपनी टिप्पणी लिख सकते हैं. 

आरपी/एमजे (एपी)