कृत्रिम फेफड़े का इलाज
२४ दिसम्बर २०१४लंग कैंसर का पता लगने पर अकसर मरीजों के इलाज में कीमोथेरपी का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन किस मरीज पर कौन सी दवा का कितना असर होगा, इसका पता करना मुश्किल है, क्योंकि दवा हर मरीज पर अलग तरह से असर करती है.
भविष्य में यह पता लगाना आसान हो जाएगा. जर्मनी के शहर वुर्त्सबुर्ग में प्रोफेसर हाइके वालेस लंग ट्यूमर की कोशिकाओं पर प्रयोग कर रही हैं. इन्हें चूहे के फेफड़ों या सूअर के पेट में उगाया जाता है. इन्हीं की मदद से रिसर्चर नकली फेफड़ा बनाते हैं. आकार - सिर्फ एक क्यूबिक सेंटीमीटर. सूअर के पेट के एक हिस्से से सारी कोशिकाएं हटाई जाती हैं और सिर्फ ढांचे पर ट्यूमर और फेफड़ों की कोशिकाएं लगाई जाती हैं.
कृत्रिम फेफड़े पर परीक्षण
इस 3डी मॉडल की मदद से दवाओं के असर का आसानी से पता लगाया जा सकता है. वुर्त्सबुर्ग मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर हाइके वालेस कहते हैं, "हमारे टेस्ट सिस्टम का एक बड़ा फायदा यह है कि हम मानवीय कोशिकाओं के साथ काम करते हैं. हम स्वस्थ और बीमार कोशिकाओं को एक साथ उगा सकते हैं और अनुमान लगा सकते हैं कि स्वस्थ कोशिका पर दवाओं का कितना बुरा असर होता है और दवा बीमार कोशिकाओं को किस हद तक मार सकती है."
लेकिन इस तरीके से सारे सवालों का जवाब नहीं मिलता. जटिल परेशानियों के लिए चूहे के फेफड़ों वाले मॉडेल का इस्तेमाल होता है. यहां भी चूहे की सारी कोशिकाएं निकाल कर उनकी जगह मानव कोशिकाएं लगाई जाती हैं. एक पंप के जरिए फेफड़े में हवा भरी जाती है जो बिलकुल हमारे सांस लेने की प्रक्रिया की नकल है. फेफड़ों को खून से भी पोषण मिलता है. सब कुछ बिलकुल मानव शरीर जैसे ही काम करता है. इस कृत्रिम फेफड़े के लिए ट्यूमर के सेल मरीजों के शरीर से लिए जाते हैं. इस तरह से हर मरीज के लिए लैब में फेफड़े पर टेस्ट किया जा सकता है और अलग अलग तरह से इलाज हो सकता है.
महंगी प्रक्रिया
प्रोफेसर वालेस कहती हैं, "इसे औद्योगिक स्तर पर अभी नहीं लाया जा सकता इसलिए यह प्रक्रिया बहुत महंगी भी है. इसलिए हम अब ट्यूमर वाले मरीजों के ग्रुप बनाने पर काम कर रहे हैं. इसके लिए हमें कोशिकाओं को बड़े ध्यान से देखना होगा. अगर मरीजों के 10 ग्रुप बन जाते हैं तो सटीक इलाज किया जा सकता है."
इस तरह की भविष्यवाणी के लिए आगे जाकर सिर्फ कंप्यूटरों की जरूरत होगी. अगर प्रयोग में एक दवा ट्यूमर कोशिकाओं को मारने में सफल होती है, तो वैज्ञानिक कोशिकाओं में प्रतिक्रिया की प्रक्रिया का अनुमान लगा कर कंप्यूटर में इसे डालते हैं. वालेस कहती हैं, "हम अपने ट्यूमर टेस्ट सिस्टम से डाटा जमा कर रहे हैं, इन्हें इस कंप्यूटर में डाल देते हैं. इस तरह से हम एक ऐसा कंप्यूटर मॉडेल विकसित कर सकते हैं, जो लंबे समय के लिए काम करेगा, जिसके जरिए हम हर मरीज को बता पाएंगे कि उस पर दवा काम करेगी या नहीं, और वह भी बिना उस पर प्रयोग किए."
हो सकता है कि आने वाले दिनों में लेसर कीमोथेरापी के बारे में हमें कभी सुनने को ना मिले. अगले पांच साल में वैज्ञानिक कैंसर थेरापी में मिनी लंग का इस्तेमाल शुरू करना चाहते हैं.
रिपोर्ट: मार्टिन रीबे/एमजी
संपादन: अनवर अशरफ