कृत्रिम फ़ोटो सिंथेसिस से सौर ऊर्जा
१८ अप्रैल २०१०जर्मनी के शहर फ्राइबुर्ग के प्रो. क्रिस्टोफ़ नीबेल को जर्मनी में कृत्रिम फ़ोटो सिंथेसिस यानी प्रकाश संश्लेषण का प्रणेता माना जा सकता है. "प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हर दिन हमारे चारो ओर हो रही है. पेड़ पौधे यही तो करते हैं. इसीलिए संसार भर में इस जीवरासायनिक क्रिया की नकल करने और उसे व्यावहारिक बनाने के प्रयास ज़ोरों से चल रहे हैं."
प्रो. नीबेल र्फ्राइबुर्ग स्थित प्रयोजनमूलक घनावस्था भौतिक विज्ञान (एप्लाइड सॉलिड स्टेट फ़िज़िक्स) के फ्राउनहोफ़र संस्थान में पिछले दो वर्षों से कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण की तकनीक का विकास करने में लगे हैं. वे भलीभांति जानते हैं कि अमेरिका सहित कई अन्य देशों के वैज्ञानिक भी इस काम में जुटे हुए हैं, "प्रोटीनों की इस बीच बेहतर समझ को देखते हुए मैं समझता हूं कि यही सही समय है फ़ोटो सिंथेसिस की क्रिया को किसी मशीन में रूपांतरित करने का-- कुछ उसी तरह, जिस तरह कोई 60 साल पहले फ़ोटोवोल्टाइक तकनीक शुरू हुई."
फ़ोटोवोल्टाइक की अपेक्षा कहीं जटिल
फ़ोटोवोल्टाइक कहते हैं प्रकाश संवेदी सिलीसियम अर्धचालकों (सेमीकंडक्टर) के बने फ़ोटो सेलों की सहायता से सूर्य-प्रकाश को सीधे बिजली में बदलने को. कृत्रिम फ़ोटो सिंथेसिस उसकी अपेक्षा कहीं जटिल प्रक्रिया है. इस जैवरासायनिक क्रिया में प्रकाश के प्रति संवेदनशील प्रोटीन अणु सूर्य के प्रकाश को विद्युत आवेशों (इलेक्ट्रिकल चार्ज) में बदलते हैं. इन विद्युत आवेशों की सहायता से, उदाहरण के लिए पानी को, उस के दोनो संघटक तत्वों ऑक्सिजन और हाइड्रोजन में विभाजित कर शुद्ध हाइड्रोजन प्राप्त किया जा सकता है. हाइड्रोजन को इस बीच भविष्य का सबसे उपयोगी और पर्यावरणसम्मत ऊर्जा स्रोत माना जाता है. प्रोफ़ेसर नीबल कहते हैं, "प्रोटीनों को एक सतह पर रख कर उन पर धूप पड़ने दी जाती है और यदि वे पानी के संपर्क में होते हैं, तो पानी से हाइड्रोजन गैस बनती है".
प्रोटीन अणु प्रकाश को बदलते हैं बिजली में
सूर्य प्रकाश को सोखने के लिए प्रो. नीबेल साइटोकोम सी कहलाने वाले प्रटीन के एक एक विशेष प्रकार का उपयोग करते हैं. यह प्रोटीन सभी जीवधारियों का पावर हाउस कहलाने वाले माइटोकोंड्रिया में मिलता है. प्रो. नीबेल ने उनके लिए कुछेक नैनोमीटर की दूरियों पर लगी हीरे की असंख्य अतिसूक्ष्म कीलों वाली एक छेटी सी पीठिका बनायी है. साइटोकोम सी वाले प्रोटीन अणु इन कीलों के बीच अपना आसन जमाते हैं. उन्हें खारे पानी से गीला रखा जाता है, तकि वे नष्ट न होने लगें.
प्रो. नीबेल के अनुसार, धूप पड़ने पर इन प्रोटीन अणुओं के एलेक्ट्रोन हीरे की नुकीली कीलों को अपना आवेश देने लगते हैं. हीरा विशुद्ध कार्बन का होने से इन विद्युत आवेशों का आदर्श वाहक माना जाता है, "सिद्धांततः कोई रासायनिक विघटन क्रिया नहीं होती. कार्बन का पानी में कोई ऑक्सीकरण (ऑक्सिडेशन) नहीं होता. हीरे की जगह किसी धातु को या सिलीसियम को भी लिया जा सकता है, जो एक उत्तम अर्धचालक (सेमीकंडक्टर) है. पर इन सभी चीज़ों का पानी के संपर्क में आने पर ऑक्सीकरण होता है. हीरे का ही होना अनिवार्य नहीं है, पर इस बीच उसका सस्ते में और बड़ी मात्रा कृत्रिम रूप से निर्माण होने लगा है."
कार्यकुशलता पेड़-पौधों के लगभग बराबर
हिसाब लगाया गया है कि कृत्रिम प्रोटीनों की सहायता से हाइड्रोजन गैस पैदा करने वाले इन तरल सौर सेलों की ऊर्जा कुशलता एक दिन 20 से 30 प्रतिशत तक पहुंच सकती है."हमारे सेलों की ऊर्जा उत्पादन कुशलता इस समय एक प्रतिशत से कम है. पेड़ पौधों के प्राकृतिक प्रकाश संश्लेषण की कार्यकुशलता भी लगभग इतनी ही होती है-- आधे से लेकर डेढ़ प्रतिशत तक."
कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण की कार्यकुशलता भले ही अभी से पेड़ पौधों की कार्यकुशलता के बराबर हो, उसका टिकाऊपन पेड़ पौधों से अभी बहुत पीछे है. तेज़ धूप उस में लगने वाले प्रोटीनों को जल्द ही नष्ट कर देती है. दूसरी ओर, फ़ोटोवोल्टाक सौर सेलों को प्रयोगशला से घरों की छतों तक पहुंचने में 50 साल लग गये थे. कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण तकनीक को भी परिपक्व होने में समय लगेगा, पर हो सकता है उसे फ़ोटोवोल्टाइक से कम समय लगे.
रिपोर्ट- राम यादव
संपादन- आभा मोंढे