किस काम की ये डिग्रियां
१० मार्च २०१४भारत में इस समय 642 विश्वविद्यालय और करीब 35 हजार कॉलेज हैं. सुना है कि 54 केंद्रीय यूनिवर्सिटी और 200 से ऊपर राज्य यूनिवर्सिटी खुलने वाली हैं. विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और संस्थानों की गुणवत्ता को परखने के लिए यूजीसी ने 1994 में नैक बनाया था-नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रीडिटेशन काउंसिल. इसके पैमाने पर महज 100-150 विश्वविद्यालय ही खरे उतरते हैं. इनमें से भी कई ने नैक हासिल करने के लिए आवेदन नहीं किया है. कई विश्वविद्यालयों की नैक वैलेडिटी की मियाद पूरी हो चुकी है. फिर से आवेदन करने की फुर्सत उन्हें नहीं है. नैक की कसौटी में संस्थान की शैक्षिक प्रक्रियाएं और उनके नतीजे, कैरीकुलम, अध्यापन और शिक्षण, मूल्यांकन प्रक्रिया, फैकल्टी, रिसर्च, बुनियादी ढांचा, संसाधन, संगठन, प्रशासन, वित्तीय स्थिति और छात्र सेवाएं शामिल हैं.
सरकार राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान भी चलाती है- रूसा. इसका काम राज्य विश्वविद्यालयों की कमियों को सुधारना और उन्हें बेहतर बनाने का है. लेकिन आज भी हम देखते हैं कि कई राज्यों में लेक्चरर, असिस्टेंट प्रोफेसर से लेकर प्रोफेसर के पद खाली के खाली हैं और कैसी हैरानी की बात है कि शिक्षा का डंका पीटने वाले और शिक्षा के एक बहुत बड़े और फैलते जाते बाजार में गोते लगा रहे देश में ये पद साल दर साल खाली रहते चले आते हैं. एनएफएस यानी नॉट फाउंड सूटेबल की तख्ती आवेदनों के आगे चिपका दी जाती है. कहां हैं योग्य उम्मीदवार और क्या है विभिन्न संस्थानों में योग्यता के पैमाने.
सरकारी मशीनरी की यही वे कमजोर कड़ियां होती हैं जिन्हें एक झटके में खींचकर निजी कंपनियां और बहुराष्ट्रीय निगम अपने लिए एक गलियारा बना लेते हैं. वे शिक्षा में एक बड़े शोर और बड़ी धज के साथ उतरते हैं. आलीशान फाइवस्टार होटल जैसी इमारतें, हाईक्लास लाईब्रेरी, उपकरण, बुनियादी ढांचा और नामी गिरामी फैकल्टी, पेशेवर दुनिया के एक से एक नामचीन लोग इनके साथ जुड़ने के लिए खिंचे चले जाते हैं.
गुणवत्ता के नाम पर आसूं
पिछले साल दिसंबर में यूजीसी के डायमंड जुबली समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए यूजीसी को फैकल्टी की भीषण कमी से निपटने की याद दिलाई थी. इस तरह एक ओर फैकल्टी की कमी का रोना रोती सरकार दबे छिपे अंदाज में मुस्कराती है कि निवेश का माहौल बना. शिक्षा का उदारीकरण हुआ. सारी उदारताएं पूंजी और कॉरपोरेट जगत के चमकीले यथार्थ में गुम हो जाती हैं. हमारे जर्जर संस्थानों से डिग्री लेकर निकले नौजवान अनिश्चय और उदासी के अंधेरों में भटकने के लिए निकल पड़ते हैं.
पीएचडी के हाल को रेखांकित करते हुए भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक सीएनआर राव का मानना है कि पीएचडी थीसिस के मामले में संख्या नहीं गुणवत्ता की अहमियत है. इसके लिए राव चीन और अमेरिका का उदाहरण देते हैं. चीन में हर साल 20 हजार पीएचडी डिग्रीधारी निकलते हैं. भारत आठ से दस हजार डॉक्टरेट देता है. चीन में 50 से 60 फीसदी रिसर्च पब्लिकेशन सामने आते हैं. दुनिया की एक फीसदी सर्वश्रेष्ठ और उल्लेखनीय रिसर्च में 60 प्रतिशत काम अमेरिका से आता है. इसमें चीन का योगदान पांच से छह फीसदी का है जबकि भारत का सिर्फ एक फीसदी.
टाइम्स हायर एजुकेशन पत्रिका की 2014 की रैंकिग में भारत की कोई यूनिवर्सिटी नहीं है. सूची में 226-300 के गैररैंकिग सेक्शन में पंजाब यूनिवर्सिटी का नाम है. इसके बाद 351-400 के सेक्शन में देश के चार आईआईटी संस्थानों के नाम हैं- दिल्ली, कानपुर, खड़गपुर और रुड़की. इन रैंकिग संस्थाओं का मानना है कि भारत में अच्छी फैकल्टी तभी आएगी जब निवेश होगा.
चयन प्रक्रिया की कमियां
लेकिन निवेश की, संसाधन की और खर्च की तो कोई कमी है नहीं. तनख्वाहें और सुविधाएं भी आकर्षक हैं, फिर भी लोग आने से कतराते हैं. या कहीं ऐसा तो नहीं कि बेहतर लोगों को शामिल करने का कोई उत्साह ही नहीं दिखाया जाता. प्रक्रिया में, विभिन्न पाठ्यक्रमों के प्रति नजरिए में और पेशेवरों की स्वीकार्यता के प्रति पूर्वाग्रह और उदासीनता हैं. मानो भर्ती की इस एक्सरसाइज का मकसद एपीआई यानी एजुकेशन परफॉर्मेंस इंडेक्स बढ़ाना रह गया हो जो यूजीसी की चयन प्रक्रिया का अहम बिंदु है. इस तरह अकादमिक निष्ठा वाले किसी कुशल पेशेवर का 20 साल का अनुभव, किसी अध्यापकीय बंदोबस्त के चतुर सुजान के इतने ही एपीआई अंकों के आगे ढेर हो सकता है. तो ये स्थितियां निराश और हताश करने वाली हैं.
सरकार की एक संस्था और है, ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन. ऑनलाइन डाटा जमा करती है. इसके मुताबिक देश में कोई एक करोड़ छह लाख लड़के और एक करोड़ ढाई लाख लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं. कुल नामांकन में लड़कियों का प्रतिशत 44 फीसदी का है. ये आंकड़ा तो आकर्षक है कि देखिए उच्च शिक्षा का विकास.
हां, ये विकास तो है लेकिन ये लेकर कहां जाता है. कोई ये भी तो बताए. सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान नजर क्यों नहीं आता. देश की तरक्की में उनकी हिस्सेदारी क्या है. ऐसे कई सवाल उठते जाएंगें और कई परतें खुलने लगेंगी.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी