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किताब में परदेसी की पहचान

२४ मार्च २०१४

विदेश में रह कर अपनी संस्कृति को संभालना आसान नहीं है. प्रवासी अक्सर इस कश्मकश से जूझते हैं कि उनकी पहचान क्या है. रुश्दी और नायपॉल जैसे कई लेखकों ने भी जवाब ढूंढने की कोशिश की है.

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तस्वीर: brat82/Fotolia.com

जिग्रिड लोफलेर जर्मन साहित्यिक जगत में मशहूर नाम है. ब्रिटिश साम्राज्य के गिरने को वे इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मानती हैं. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने अपनी नई किताब, "द न्यू वर्ल्ड लिटरेचर एंड इट्स ग्रेट नैरेटर्स" के बारे में बताया. अपनी किताब में उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के काल में अंग्रेजी साहित्य का विश्लेषण किया है. इसमें एशिया, अफ्रीका और कैरेबियाई देशों का अंग्रेजी साहित्य शामिल है.

जिन लेखकों पर लोफलेर ध्यान दे रही हैं, वे सभी ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्वी उपनिवेशों से नाता रखते हैं और यही वजह है कि वे अपनी मातृभाषा की जगह अंग्रेजी में किताबें लिखते हैं. लोफलेर का कहना है, "नई वैश्विक साहित्य का 85 फीसदी हिस्सा अंग्रेजी में ही लिखा जा रहा है." वे बताती हैं कि इन दिनों कम ही लेखक जर्मन या फ्रांसीसी में लिखना पसंद कर रहे हैं.

उनकी नई सूची में सलमान रुश्दी और वीएस नायपॉल जैसे नाम शामिल हैं. नायपॉल को साहित्य का नोबेल भी मिल चुका है. पर साथ ही कई नए नाम भी हैं, "साहित्य विकास कर रहा है, यह बढ़ता चला जा रहा है और हर साल नए लेखक और नई किताबें बाजार में आ रही हैं."

अपनी किताब से लोफलेर पाठकों का ध्यान इस ओर खींचना चाहती हैं कि पिछले कुछ दशकों में पूर्वी उपनिवेशों से काफी आप्रवासन हुआ है. खास तौर से भारत और पाकिस्तान से बहुत से लोग अंग्रेजी भाषी देशों में जा बसे. इस बीच लंदन और न्यूयॉर्क न्यू वर्ल्ड लिटरेचर के लिहाज से सबसे अहम शहर बन गए हैं.

Salman Rushdie
सलमान रुश्दीतस्वीर: Indranil Mukherjee/AFP/Getty Images

संस्कृति और संघर्ष

पूर्वी उपनिवेशों से आने वाले लोग भले ही अंग्रेजी में लिखते हों, लेकिन वे अपने साथ अपनी संस्कृति और अपनी भाषा लाते हैं और अपनी किताबों में उसका इस्तेमाल भी करते हैं. वे बताती हैं, "हम यहां उन लोगों की बात कर रहे हैं जो अपने देश छोड़ कर इंग्लैंड चले गए और वहीं बस गए. फिर उन्होंने वहीं अपने अनुभवों के बारे में लिखना भी शुरू कर दिया. पर इसके अलावा ऐसे लोग भी हैं जो अपने देशों में ही रह कर कर वहां के बारे में अंग्रेजी में लिख रहे हैं."

लोफलेर का कहना है कि इस तरह का साहित्य कई पीढ़ियों से लिखा जा रहा है लेकिन इसे लोकप्रिय होने में काफी वक्त लगा, "पहली पीढ़ी ने जीवन बदल देने वाला कदम उठाया, वे दूसरे देश जा बसे. इसीलिए उनकी किताबों में विषय भी यही रहा, अपने देश की याद और नए देश में बसना और वहां की संस्कृति में घुल मिल जाना." लेकिन आज के लेखक "परदेस के रहस्यों" पर नहीं लिख रहे, "ये गरीबी से जूझ रहे प्रवासी नहीं हैं, ये तो अब उच्च वर्ग का हिस्सा हैं. यह एक अलग ही तबका है."

लेकिन हर पीढ़ी के लिए कुछ सवाल यूं के यूं बने हुए हैं. एक संस्कृति को छोड़, दूसरी में अपनी जगह तलाशना, बंजारों सी जिंदगी जीना, अपने अस्तित्व को खोजना, इन सबके लिए एक जैसा ही है. जर्मनी की बात की जाए, तो यहां भी हाल के सालों में इस तरह का साहित्य देखने को मिल रहा है. तुर्की और पूर्व यूगोस्लाविया से आए लोग अब जर्मन में किताबें लिखने लगे हैं. लोफलेर का कहना है, "ये लेखक जर्मन साहित्य को समृद्ध बना रहे हैं."

रिपोर्ट: जोखेन कुर्टेन/ईशा भाटिया

संपादन: ए जमाल