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कितना जरूरी है राज्यपाल का पद

१४ जुलाई २०१६

अरुणाचल प्रदेश में बर्खास्त कांग्रेस सरकार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा बहाल किए जाने के बाद गवर्नर के पद के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं. कुलदीप कुमार का कहना है कि राज्यपालों पर पार्टियों के बीच आम राय का बनना जरूरी है.

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Arvind Kejriwal Indien Ministerpräsident Vereidigung
दिल्ली की निर्वाचित सरकार से लगातार झगड़ातस्वीर: AFP/Getty Images

अरुणाचल प्रदेश की बर्खास्त नबम तुकी सरकार को बहाल करने का अभूतपूर्व फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा के बारे में अत्यंत कड़ी टिप्पणियां की हैं. इन टिप्पणियों के कारण जहां एक ओर राजखोवा के अपने पद पर बने रहने के औचित्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं, वहीं एक बार फिर राज्यपाल के पद की जरूरत का मुद्दा भी बहस के केंद्र में आता जा रहा है. यूं देखा जाए तो राज्यपाल ही नहीं, विधानमंडलों और संसद के सदनों के पीठासीन अधिकारियों की भूमिका पर भी बहस होनी चाहिए क्योंकि ये सभी संवैधानिक पद हैं और इन पर आसीन व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे इन पदों पर रहते हुए अपनी राजनीतिक निष्ठाओं को भूलकर निष्पक्ष ढंग से काम करें, काफी कुछ उस अंपायर की तरह जिसका लगाव या खिंचाव किसी भी टीम के साथ नहीं होना चाहिए और जिसका हर फैसला बिना किसी पक्षपात के लिया जाना चाहिए.

लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है, न राजनीति में और न ही खेल के मैदान में. इसका प्रमुख कारण यह है कि सभी राजनीतिक दल सत्ता में होते समय इन पदों का अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं और विपक्ष में होने पर इस प्रकार के दुरुपयोग का विरोध करते हैं. यही कारण है कि 1980 के दशक में गठित सरकारिया आयोग की उन सिफ़ारिशों पर आज तक अमल नहीं किया गया जिनमें उसने कहा था कि राज्यपाल के पद पर विभिन्न क्षेत्रों के ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को नियुक्त किया जाए जो राजनीति से दूर हों और निष्पक्ष तरीके से अपने पद की जिम्मेदारियां निभाएं. लेकिन राज्यों के राजभवन उन नेताओं की आरामगाह बन गए हैं जो या तो चुनाव हार गए हैं, या जो इतने बुजुर्ग हो चुके हैं कि चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं रहे, या जिन पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण मुकदमा चलने की संभावना है. राज्यपाल के संवैधानिक पद पर आसीन होने के बाद किसी भी व्यक्ति पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को राज्यपाल बनाया जाना इसका एक उदाहरण है. सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिन भी राज्यपालों को नियुक्त किया है, वे सभी भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय रहे हैं.

संविधान की व्यवस्था के अनुसार जिस तरह राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए बाध्य हैं, उसी तरह राज्यपाल भी राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार काम करते हैं. सामान्य स्थितियों में ये दोनों पद शोभा के पद मात्र हैं क्योंकि राष्ट्रपति या राज्यपाल के पास स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता. लेकिन राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में दोनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि तब उन्हें अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेने होते हैं. ऐसी स्थितियों में ही राज्यपाल की निष्पक्षता की परीक्षा होती है. दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि कुछेक सम्माननीय अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश राज्यपाल केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट के रूप में काम करते हैं. अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने भी संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए राज्य की मंत्रिपरिषद से सलाह किए बगैर मनमाने फैसले लिए और विधायकों के एक गुट को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी. नतीजतन पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने एक बर्खास्त सरकार को बहाल करने का ऐतिहासिक और अभूतपूर्व निर्णय लिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर “सहयोगपूर्ण संघवाद” की बात करते हैं, लेकिन उनकी सरकार और उसके इशारे पर काम करने वाले राज्यपालों का आचरण इसके पूरी तरह से विपरीत है.

अतीत में भी जब कभी राज्यपालों ने अपने आचरण से अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है, तभी इस पद को ही समाप्त करने की मांगे उठी हैं और इनके पक्ष में काफी मजबूत तर्क भी पेश किए गए हैं. लेकिन यह पद समाप्त करना ऐसा ही होगा जैसे अंग्रेजी कहावत के मुताबिक नहाने के पानी के साथ शिशु को भी बाहर फेंक देना. हर खेल में एक रेफरी या अंपायर की जरूरत होती है. अंपायर गलत फैसले भी देते हैं लेकिन अंपायर का पद समाप्त नहीं किया जाता और कोशिश की जाती है कि निष्पक्ष और तटस्थ अंपायर को नियुक्त किया जाए. राज्यपालों के मामले में भी राजनीतिक दलों के बीच एक आम राय का बनना बहुत जरूरी है क्योंकि हर दल को किसी न किसी समय राज्यपालों के पक्षपातपूर्ण आचरण के कारण नुकसान झेलना पड़ता है. इसलिए उनके बीच यदि इस पर आम राय बन जाए कि इस संवैधानिक पद पर उन व्यक्तियों को ही बैठाया जाएगा जिन्होंने किसी न किसी गैर-राजनीतिक क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया हो, समाज में आदर और प्रतिष्ठा अर्जित की हो और अपने आचरण से लोगों को प्रभावित किया हो. ऐसे ईमानदार और समाज के लिए समर्पित लोग ही व्यक्तिगत या दलगत हानि-लाभ को भूलकर बिना लाग-लपेट के फैसले ले सकते हैं. यदि राजनीतिक दल व्यापक राष्ट्रीय हित के बजाय केवल अपने संकीर्ण स्वार्थों को ही देखते रहे, तो भविष्य में स्थिति के और अधिक बिगड़ जाने का खतरा है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार