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लोकतंत्र के दो स्तंभों के बीच बढ़ता टकराव

प्रभाकर१५ अगस्त २०१६

न्यायपालिका और सरकार के बीच जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर टकराव बढ़ता ही जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर सीधा हमला बोलते हुए सवाल किया है कि क्या वह पूरी न्यायपालिका को ठप कर देना चाहती है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

अदालत का कहना है कि मौजूदा हालात में उसे इस मुद्दे पर आदेश पारित करना होगा. दरअसल सरकार हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति व तबादले के मुद्दे पर कालेजियम की सिफारिशों पर चुप्पी साधे बैठी है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया है कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उससे टकराव से नहीं हिचकेगी.

लोकतंत्र के चार में से दो स्तंभों यानी कार्यपालिका और न्यायपालिका में यह टकराव बीते आठ महीनों से चल रहा है. अदालत में लंबित मामले तो तेजी से बढ़ ही रहे हैं. लेकिन जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर विवाद के चलते कामकाज का बोझ भी तेजी से बढ़ रहा है. दरअसल असली मुद्दा सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के तरीके का है.

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फिलहाल सुप्रीम के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित कालेजियम ही लंबे अरसे से जजों का चयन करता रहा है. लेकिन नई केंद्र सरकार इस प्रक्रिया में बदलाव चाहती है. इससे पहले मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने आंखों में आंसू भरते हुए सरकार से जजों की नियुकित की प्रक्रिया में तेजी लाने को कहा था. अदालत ने बीते साल अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को भी रद्द कर दिया था. उसके बाद केंद्र और कालेजियम में नियुक्ति की नई प्रक्रिया अपनाने पर सहमति बनी थी. लेकिन वह मामला आगे नहीं बढ़ सका है.

कालेजियम ने 74 जजों की नियुक्ति के लिए बीती फरवरी में जो सिफारिशें भेजी थीं, वह अब तक लंबित हैं. इसी वजह से अदालत की नाराजगी बढ़ गई है. उसने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी से यह पता करने को कहा है कि वह प्रस्ताव कहां अटका है. मुख्य न्यायधीश का कहना था कि हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के मामले में होने वाली इस देरी को सहन नहीं किया जा सकता. इसका असर आम लोगों पर पड़ रहा है.

देश के 24 हाईकोर्टों में फिलहाल 40 लाख मामले लंबित हैं. उनमें जजों के 478 पद खाली हैं जो कुल क्षमता का 44.3 फीसदी है. मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई है. हजारों लोग 13-13 साल से जेलों में बंद रह कर अपने मामले की सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं. जजों की नियुक्ति नहीं होने की वजह से इन मामलों की सुनवाई लगभग असंभव हो गई है.

31 जज और 60,000 मामले

इनके अलावा छोटी अदालतों में लगभग तीन करोड़ मामले लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट की हालत भी बेहतर नहीं है. वर्ष 1951 में स्थापना के समय तय हुआ था कि इसमें आठ जज सालाना 1,215 मामले देखेंगे. लेकिन अब हालत यह है कि 31 जजों को सालाना 60,000 मामलों को देखना पड़ता है. उसमें भी फिलहाल तीन पद खाली पड़े हैं. मुख्य न्यायधीश पहले ही कह चुके हैं कि देश में फिलहाल 21,000 जज हैं लेकिन अगर लंबित मामलों को तेजी से निपटाना है तो इनकी तादाद दोगुनी करनी होगी.

वैसे, कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच टकराव पहले भी होते रहे हैं. इससे पहले सूखे के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने जब केंद्र व राज्य सरकारों की खिंचाई की थी तो कई केंद्रीय मंत्रियों ने अदालत से लक्ष्मण रेखा खींचने और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश नहीं करने को कहा था. बीते साल सरकार ने जजों की बहाली के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का फैसला किया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए उसे खारिज कर दिया था कि आयोग में मंत्रियों के शामिल होने की वजह से न्यायपालिका की निष्पक्षता पर आंच आने का अंदेशा है.

कानून विशेषज्ञों का कहना है कि कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच बढ़ता यह टकराव लोकतंत्र के हित में नहीं है. इससे पहले से ही उलझी परिस्थिति के और बिगड़ने का अंदेशा है. एक ओर अदालतों के समक्ष रोजाना हजारों नए मामले आ रहे हैं, तो दूसरी ओर जजों की कमी की वजह से मामलों को निपटाने में कामयाबी नहीं मिल रही है. इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र को कटघरे में खड़ा किया है. अब मौजूदा विवाद में केंद्र के रुख से ही साफ होगा कि लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों के बीच खाई घटेगी या और बढ़ेगी.