कहां गुम हो गईं एशियाई टीमें
२८ जून २०१४दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी एशिया में रहती है, लेकिन इसके बावजूद वहां से एक ऐसी फुटबॉल टीम नहीं आ पाती जो फुटबॉल में धाक जमा सके. एशियाई स्तर पर बात होती है, तो उत्तर दक्षिण कोरिया, जापान, चीन, सऊदी अरब, ईरान, जॉर्डन.. पता नहीं कितने ही नाम सामने आते हैं. ऐसे देशों में फुटबॉल का जुनून भी है और रिवाज भी. लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी हवा गोल हो जाती है. अगर 2002 में दक्षिण कोरिया के सेमीफाइनल में पहुंचने को अलग कर दिया जाए, तो एशियाई देशों ने आज तक वर्ल्ड कप में कोई कमाल नहीं किया है. इस बार तो और भी हद हो गई. चार टीमों में से कोई एक भी मैच नहीं जीत पाया. जापान, कोरिया और ईरान ने सिर्फ एक एक ड्रॉ खेला.
आम तौर पर एशिया में फुटबॉल की नाकामी की तीन वजहें दी जाती हैं, दम खम की कमी, कुपोषण और ट्रेनिंग तथा रिवाज की कमी. लेकिन बारीकी से देखने पर इन तीनों दावों पर सवाल उठ सकते हैं. समूचा दक्षिण एशिया मजदूरी और कृषि पर आधारित इलाका है, जहां के लोग न सिर्फ अपने देशों में बल्कि विदेशों में भी कड़ी मेहनत के लिए जाने जाते हैं. अगर गौर से देखा जाए, तो क्रिकेट भी कोई कम दम खम वाला खेल नहीं, जहां कई बार बल्लेबाजों को घंटों क्रीज पर रहना पड़ता है और इस दौरान मेहनत भरे शॉट भी खेलने पड़ते हैं. क्रिकेट में भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका का बोलबाला है.
एशियाई फुटबॉल में बार बार कुपोषण को उभारा जाता है. वन गोल नाम की संस्था ने तो बाकायदा एशियाई फुटबॉल संगठनों के साथ मिल कर रिसर्च भी किए हैं और नतीजे निकाले हैं कि किस तरह वहां के बच्चों को विटामिन और दूसरी पोषक चीजें नहीं मिलतीं "और इस वजह से बच्चे अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ मुकाबला नहीं कर सकते". इस दलील को सिर्फ चीन की मिसाल से काटा जा सकता है. पिछली सदी तक चीन खेल की दुनिया का एक मामूली देश था. लेकिन पिछले एक दो दशक में यह इतनी तेजी से उभरा है कि ओलंपिक में सीधे पहले दूसरे नंबर पर जा पहुंचा है. ओलंपिक खेलों पर ध्यान देने के बाद से चीन में खेल का कायापलट हो चुका है. छोटे छोटे बच्चे तैराकी और दौड़ में नाम कमा रहे हैं.
ऐसे में ले देकर ट्रेनिंग और रिवाज पर ही ध्यान दिए जाने की जरूरत है. चीन ने हाल के दिनों में फुटबॉल पर पैसे लगाने की शुरुआत की है. ड्रोग्बा जैसे कुछ नामी खिलाड़ी चीनी प्रीमियर लीग में खेल चुके हैं, जबकि बुनियादी ढांचा भी तैयार किया जा रहा है. भारत में फुटबॉल लीग की शुरुआत हुई है, जिसमें काफी पैसा लगाया जा रहा है. युद्ध से जर्जर मध्यपूर्व में इसकी कमी दिखती है. हालांकि कतर और दुबई जैसे देशों में फुटबॉल को लेकर क्रेज उभर रहा है लेकिन क्रेज से ग्राउंड पर जीत तक के सफर में लंबा फासला होता है.
वर्ल्ड कप में एशियाई देशों को शामिल करना मजबूरी है क्योंकि हर महाद्वीप के नाम पर कोटा बंधा है. वर्ल्ड कप में सबसे ज्यादा यूरोप से 13, दोनों अमेरिकी महाद्वीप और कैरिबियाई देशों को आठ, अफ्रीका को पांच और एशिया तथा ओसियाना को मिला कर पांच देश होते हैं. मेजबान को टूर्नामेंट में अपने आप जगह मिल जाती है.
जरूरत है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तालमेल बिठाने की. आखिर जब लातिन अमेरिका और अफ्रीका के फुटबॉल खिलाड़ी यूरोप में खेल सकते हैं, तो फिर एशियाई खिलाड़ी क्यों नहीं. इसका मतलब यह कतई नहीं कि यूरोप में फुटबॉल खेलने वाला ही बड़ा स्टार होता है, बल्कि फुटबॉल को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की जरूरत है. सरकारों को भी लगातार फुटबॉल पर ध्यान देने की जरूरत है, सिर्फ विश्व कप के दौरान नहीं. कतर को आठ साल में वर्ल्ड कप का आयोजन करना है और मेजबान होने के नाते वह अपने आप वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई कर जाएगा. लेकिन तब तक एशियाई फुटबॉल का कितना भला होता है, इसे लेकर बहुत ज्यादा शक नहीं होना चाहिए. मौजूदा हालात ऐसी है कि फीफा रैंकिंग में सबसे ऊपर जो एशियाई देश है, वह है ईरान, जो 43वें नंबर पर है और भारत की तो बात ही छोड़िए, जो 154वें नंबर पर है.
ब्लॉगः अनवर जे अशरफ
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी