कश्मीर पर मोदी सरकार की पहल
२४ अक्टूबर २०१७
साढ़े तीन साल तक सत्ता में रहने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब समझ में आ गया है कि कश्मीर समस्या का समाधान बंदूक के बल पर नहीं किया जा सकता. इसका संकेत पिछली पंद्रह अगस्त को स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से दिए गए उनके भाषण में भी मिला था जब उन्होंने कहा था कि कश्मीर समस्या न तो गोली से सुलझेगी और न गाली से, वह तो गले मिलने से ही सुलझ सकती है. इसके बाद सितम्बर में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जम्मू-कश्मीर की यात्रा की और अब उन्होंने घोषणा की है कि केंद्रीय गुप्तचर ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को केंद्र की ओर से विशेष प्रतिनिधि के तौर पर जम्मू-कश्मीर भेजा जा रहा है ताकि वे वहां के निर्वाचित प्रतिनिधियों, विभिन्न संगठनों और सम्बद्ध व्यक्तियों के साथ सतत संवाद चलाएं और उनकी वैध आकांक्षाओं को समझकर राज्य एवं केंद्र सरकार को सूचित करें. राजनाथ सिंह ने यह भी स्पष्ट किया है कि शर्मा की इस कोशिश के केंद्र में राज्य के युवा रहेंगे और वह किसी से भी मिलने के लिए स्वतंत्र होंगे. इससे जाहिर है कि हुर्रियत नेताओं से मुलाकात की संभावना को खारिज नहीं किया गया है.
चाहे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हों या उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, सभी ने इस पहल का स्वागत किया है. महबूबा मुफ्ती ने विशेष रूप से राहत की सांस ली होगी क्योंकि उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी अलगाववादियों के साथ सहानुभूति के कारण सत्ता में आयी थी लेकिन उसे उस भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी जो केंद्र में भी सत्तारूढ़ थी. मोदी सरकार ने साढ़े तीन साल तक राज्य के आंदोलनकारियों के प्रति बेहद सख्त नीति अपनाई और पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादियों और राज्य एवं केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले किशोर और युवा प्रदर्शनकारियों में कोई भी फर्क न करते हुए भरपूर ढंग से बलप्रयोग किया. बहुत बड़ी तादाद में किशोर और युवा प्रदर्शनकारियों को आंखों की रोशनी गंवानी पड़ी क्योंकि उन पर सुरक्षाबल बंदूकों से छर्रे बरसाते थे. राजनीतिक संवाद शुरू करने की भी कोई कोशिश नहीं की गयी. अब भी दिनेश्वर शर्मा को काम दिया गया है कि वह जम्मू-कश्मीर के लोगों की "वैध आकांक्षाओं" को समझें. यानी अभी तक मोदी सरकार को यह भी नहीं पता कि राज्य के लोगों की आकांक्षाएं क्या हैं! और कौन-सी "वैध" है और कौन-सी "अवैध", इसे कौन तय करेगा?
मोदी सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल लगातार यह कहते रहे हैं कि वे पाकिस्तान-समर्थित हुर्रियत नेताओं से बात करने से बेहतर सीधे पाकिस्तान से बात करना समझते हैं. क्या किसी से भी संवाद स्थापित करने की स्वतंत्रता दिए जाने के बावजूद शर्मा डोभाल की घोषित नीति से उलट हुर्रियत नेताओं से बात करना पसंद करेंगे? अभी इस बारे में कुछ भी कहना कठिन है. शर्मा गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक रहे हैं. यह एक खुला रहस्य है कि कश्मीर के हर रंगत के नेता गुप्तचर ब्यूरो के अधिकारियों के संपर्क में रहते हैं और उनसे खुलकर बातें करते हैं. इस नजरिये से शर्मा की नियुक्ति सही लगती है लेकिन दूसरी ओर बहुत-से लोगों का यह भी मानना है कि यदि मोदी सरकार किसी कद्दावर राजनीतिक नेता को यह जिम्मेदारी सौंपती तो शायद वह बेहतर होता क्योंकि समस्या मूलतः राजनीतिक है और उसे कोई राजनीतिक व्यक्ति ही समझ और सुलझा सकता है.
इसके अलावा इस पहल की सफलता में संदेह इसलिए भी है क्योंकि अब मोदी सरकार के कार्यकाल में केवल डेढ़ साल ही बचा है. भाजपा को कितनी ही आश्वस्ति क्यों न हो, कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसी की जीत होगी और नरेंद्र मोदी ही फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे. यदि यही पहल 2014 में की गयी होती तो अब तक तो उसके परिणाम भी सामने आ गए होते. लेकिन कार्यकाल के अंतिम चरण में की गयी यह पहल कार्यकाल पूरा होने तक परवान चढ़ सकेगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. यहां यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि कुछ ही समय पहले आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने जो लेख लिखा था, उसमें उन्होंने कश्मीर समस्या को सुलझाने में सरकार की नाकामी पर भी टिप्पणी की थी. लगता है उनका तीर निशाने पर लगा और सरकार ने देर से ही सही, एक दुरुस्त पहल करने का फैसला लिया. हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों से ठीक पहले उठाया गया यह कदम यदि थोड़ा-सा भी सफल रहा, तो भाजपा और मोदी को इसका काफी बड़ा राजनीतिक लाभ मिल सकता है.