कश्मीर: इतिहास की कैद में भविष्य
१८ जुलाई २०१६कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि कश्मीर को आध्यात्मिक शक्ति से तो जीता जा सकता है लेकिन सैन्य शक्ति से नहीं. राजतरंगिणी 1184 ईसापूर्व के राजा गोनंद से लेकर राजा विजयसिम्हा (1129 ईसवी) तक के कश्मीर के प्राचीन राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज़ तो है ही साथ ही वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का भी काव्यात्मक आख्यान है. पौराणिक आख्यानों को छोड़ दें तो कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास सम्राट अशोक के काल से मिलता है जिसने वहां बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया. लेकिन कश्मीर में बौद्ध धर्म की स्थापना हूण वंश के प्रतापी राजा कनिष्क के समय हुई जिन्होंने सर्वस्तिवाद की विभिन्न पुस्तकों और यत्र तत्र फैले विचारों को एक साथ रखकर उसका व्यापक आधार निर्मित करने के उद्देश्य से श्रीनगर के कुंडल वन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद परम्परा की चौथी बौद्ध महासंगीति का आयोजन किया जिसमें सर्वस्तिवाद के तीन प्रमुख ग्रन्थ लिखे गए. इनमें से एक "महा विभास शास्त्र" अब भी चीनी भाषा में उपलब्ध है.
कश्मीर में बौद्ध
इसी दौरान पहली बार बौद्ध ग्रन्थ की भाषा प्राकृत की जगह संस्कृत का उपयोग किया गया. इसके बाद कनिष्क ने पूरे उत्साह से कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया जहां से यह मध्य पूर्व, चीन. कोरिया और जापान में फैला. बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित कर दिया गया. ह्वेन सांग ने उसके शासन काल में कश्मीर में पांच सौ बौद्ध विद्वानों के होने का ज़िक्र किया है जिसमें वसुमित्र भी शामिल थे. बाद में देश के बाक़ी हिस्सों की तरह कश्मीर में भी एक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म का पतन हो गया लेकिन कश्मीरी मानस और समाज में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रभाव हमेशा बना रहा. कश्मीर में विकसित हुए शैव धर्म और इस्लाम के सूफी मत पर इसका गहरा प्रभाव है.
शैव दर्शन का असर
कश्मीर में आठवीं-नौवीं शताब्दी में अपने तरह का शैव दर्शन विकसित हुआ. यह विभिन्न अद्वैत और तांत्रिक धार्मिक परम्पराओं का एक समुच्चय है. वसुगुप्त की सूक्तियों का संकलन 'स्पन्दकारिका' इसका पहला प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है. वसुगुप्त के बाद उनके दो शिष्यों, कल्लट तथा सोमानंद ने इस दर्शन को मज़बूत वैचारिक आधार दिया. अभिनव गुप्त की पुस्तक 'तन्त्रलोक' एकेश्वरवादी दर्शन की इनसाइक्लोपीडिया मानी जाती है. उनके शिष्य क्षेमेन्द्र ने अपने गुरु का काम आगे बढ़ाते हुए अपनी पुस्तक "प्रत्याभिज्ञान हृदय' में अद्वैत शैव परम्परा के ग्रंथों का सहज विश्लेषण प्रस्तुत किया. इस दर्शन ने कश्मीर जनजीवन पर ही नहीं अपितु पूरे दक्षिण एशिया की शैव परम्परा पर गहरा प्रभाव डाला. नौवीं से बारहवीं सदी के बीच बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होता गया और शैव दर्शन कश्मीर का सबसे प्रभावी दर्शन बन गया.
शैव राजाओं में सबसे पहला और प्रमुख नाम मिहिरकुल का है जो हूण वंश का था लेकिन कश्मीर पर विजय पाने के बाद उसने शैव धर्म अपना लिया था. वह एक तरफ बेहद क्रूर राजा था तो दूसरी तरफ ब्राह्मणों को प्रसन्न करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. हूण वंश के बाद गोनंद द्वितीय और कार्कोटा नाग वंश का शासन हुआ जिसके राजा ललितादित्य मुक्तपीड को कश्मीर के सबसे महान राजाओं में शामिल किया जाता है. वह न केवल एक महान विजेता था बल्कि उसने अपनी जनता को आर्थिक समृद्धि उपलब्ध कराने के साथ-साथ मार्तंड के सूर्य मंदिर जैसे महान निर्माण कार्य भी करवाए.
इस क्रम में अगला नाम 855 ईस्वी में सत्ता में आये उत्पल वंश के अवन्तिवर्मन का लिया जाता है जिनका शासन काल कश्मीर के सुख और समृद्धि का काल था. उसके 28 साल के शासन काल में मंदिरों आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ. प्रसिद्ध वैयाकरणिक रम्मत, मुक्तकण, शिवस्वामिन और कवि आनंदवर्धन तथा रत्नाकर उसकी राजसभा के सदस्य थे. कश्मीर के इस दौर में संस्कृत साहित्य के सृजन का उत्कर्ष देखा जा सकता है. सातवीं सदी में भीम भट्ट, दामोदर गुप्त, आठवीं सदी में क्षीर स्वामी, रत्नाकर, वल्लभ देव, नौवीं सदी में मम्मट, क्षेमेन्द्र, सोमदेव से लेकर दसवीं सदी के मिल्हण, जयद्रथ और ग्यारहवीं सदी के कल्हण जैसे संस्कृत के विद्वान कवियों-भाष्यकारों की एक लम्बी परम्परा है.
हिंदू राजाओं का पतन
अवन्तिवर्मन की मृत्यु के बाद हिन्दू राजाओं के पतन का काल शुरू हो गया. सुरा-सुंदरी के प्रभाव में ऐसे ऐसे राजा हुए जिन्होंने अपने सगे बेटों के साथ सत्ता संघर्ष किये. अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तथा जनता त्राहि माम करने लगी. ऐसे ही एक राजा क्षेमेन्द्र गुप्त का राज्यकाल पतन की पराकाष्ठा का काल था. क्षेमेन्द्र शराब और कामक्रीड़ा से जब मुक्त होता था तो विद्वानों के अपमान और किसानों के उत्पीडन के नए नए तरीके ढूंढता था. हालत यह कि उसके मंत्री उसे अपने घर पर आमंत्रित कर अपनी पत्नियां प्रस्तुत करते थे. उसकी मृत्यु के बाद अल्पवयस्क पुत्र अभिमन्यु की संरक्षिका के रूप में गद्दी पर बैठी दिद्दा ने क्रूरता और अय्याशी में अपने पति को भी पीछे छोड़ दिया और अभिमन्यु कि असमय मृत्यु के बाद अपने प्रेमी की सहायता से उसके तीन बेटों की एक के बाद एक हत्या करवा दी.
कैसे मिला पहला मुस्लिम शासक
आगे का क़िस्सा किसी सस्ती बॉलीवुड फ़िल्म सा है जिसमें नैतिकता और रिश्तों के सारे परदे उठा दिए गए. जयसिम्हा का राज्यकाल भी इस पतन को नहीं रोक पाया और कश्मीर की क़िस्मत में हर्ष जैसा राजा आया जिसने अपनी हवस में सगी बुआ तक को नहीं बख्शा तथा अय्याशी के लिए मंदिरों को तोड़ना रोज़ का काम बना लिया. अंततः जब एक मंगोल आक्रमणकारी दुलचा ने आक्रमण किया कश्मीर पर तो तत्कालीन राजा सहदेव भाग खडा हुआ और इस अवसर का फ़ायदा उठा कर तिब्बत से आया एक बौद्ध रिंचन अपने मित्र तथा सहदेव के सेनापति रामचंद्र की बेटी कोटारानी के सहयोग में कश्मीर की गद्दी पर बैठा. उसने इस्लाम अपना लिया और इस तरह कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक हुआ. कालांतर में शाहमीर ने कश्मीर की गद्दी पर कब्ज़ा कर लिया और अगले 222 वर्षों तक उसके वंशजों ने कश्मीर पर राज किया.
आरम्भ में ये सुल्तान सहिष्णु रहे लेकिन हमादान से आये शाह हमादान के समय में शुरू हुआ इस्लामीकरण सुल्तान सिकन्दर के समय अपने चरम पर पहुंच गया. हिन्दू धर्म में भेदभाव और पतन इसमें सहयोगी बना और जब लाल देद जैसी शैव योगिनी ने हिन्दू धर्म में सुधार के लिए एकेश्वरवाद और सामाजिक समानता की बात की तो वह भी इस्लाम के पक्ष में गया. शाह हमादान के बेटे मीर हमदानी के नेतृत्व में मंदिरों को तोड़ने और तलवार के दम पर इस्लामीकरण का दौर सिकन्दर के बेटे अलीशाह तक चला लेकिन उसके बाद 1417 में ज़ैनुल आब्दीन गद्दी पर बैठा और उसने अपने पिता तथा भाई की साम्प्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया. उसका आधी सदी का शासन काल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है. जनता के हित में किये उसके कार्यों के कारण ही कश्मीरी इतिहास में उसे बड शाह यानी महान शासक कहा जाता है. ज़ैनुल आब्दीन के बाद शाहमीर वंश का पतन शुरू हो गया और इसके बाद चक वंश सत्ता में आया जिसका समय कश्मीर में बर्बादी का समय माना जाता है.
मुगलिया सल्तनत
16 अक्टूबर 1586 को मुग़ल सिपहसालार कासिम खान मीर ने चक शासक याक़ूब खान को हराकर कश्मीर पर मुग़लिया सल्तनत का परचम फ़हराया तो फिर अगले 361 सालों तक घाटी पर ग़ैर कश्मीरियों का शासन रहा- मुग़ल, अफ़गान, सिख, डोगरे. अकबर से लेकर शाहजहां का समय कश्मीर में सुख और समृद्धि के साथ-साथ साम्प्रदायिक सद्भाव का था लेकिन औरंगजेब और उसके बाद के शासकों ने इस नीति को पलट दिया और हिन्दुओं के साथ-साथ शिया मुसलमानों के साथ भी भेदभाव की नीति अपनाई गई. मुग़ल वंश के पतन के साथ साथ कश्मीर पर उनका नियंत्रण भी समाप्त हो गया और 1753 में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया. अफगानों के अत्याचार की कथाएं आज तक कश्मीर में सुनी जा सकती हैं, अगले 67 सालों तक पांच अलग अलग गवर्नरों के राज में कश्मीर लूटा-खसोटा जाता रहा. अफगान शासन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें प्रशासनिक पदों पर स्थानीय मुसलमानों की जगह कश्मीर पंडितों को तरज़ीह दी गई. ट्रैवल्स इन कश्मीर ऐंड पंजाब में बैरन ह्यूगल लिखते हैं कि पठान गवर्नरों के राज में लगभग सभी व्यापारों और रोज़गारों के सर्वोच्च पदों पर कश्मीरी ब्राह्मण पदासीन थे. संयोग ही है कि अफगान शासन के अंत के लिए भी अंतिम गवर्नर राजिम शाह के राजस्व विभाग के प्रमुख एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने सिख राजा रणजीत सिंह को कश्मीर आने का न्यौता दिया. अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के नेतृत्व में हरि सिंह नलवा सहित अपने सबसे क़ाबिल सरदारों के साथ तीस हज़ार की फौज रवाना की.
फिर आए सिख
आज़िम खान अपने भाई जब्बार खान के भरोसे कश्मीर को छोड़कर काबुल भाग गया, इस तरह 15 जून 1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई, बीरबल धर फिर से राजस्व विभाग के प्रमुख बनाये गए और मिस्र दीवान चंद कश्मीर के गवर्नर. दीवान चंद के बाद कश्मीर की कमान आई मोती चंद के हाथों और शुरू हुआ मुसलमानों के उत्पीड़न का दौर. श्रीनगर की जामा मस्ज़िद बंद कर दी गई, अजान पर पाबंदी लगा दी गई, गोकशी की सज़ा अब मौत थी और सैकड़ों कसाइयों को सरेआम फांसी दे दी गई.
1839 में रणजीत सिंह की मौत के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा. अंग्रेज़ों के लिए यह अफगानिस्तान की ख़तरनाक सीमा पर नियंत्रण का मौक़ा था तो जम्मू के राजा गुलाब सिंह के लिए खुद को स्वतंत्र घोषित करने का. लाहौर में फैली अफरातफरी का फ़ायदा उठा कर अंग्रेज़ों ने 1845 में लाहौर पर आक्रमण कर दिया और अंततः दस फरवरी 1846 को सोबरांव के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की. इसके बाद 16 मार्च, 1846 को अंग्रेज़ों ने गुलाब सिंह के साथ अमृतसर संधि की जिसमें 75 लाख रुपयों के बदले उन्हें सिंधु के पूरब और रावी नदी के पश्चिम का जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के इलाक़े की सार्वभौम सत्ता दी गई, इस तरह अपने पूर्व शासक रणजीत सिंह के बेटे को धोखा देकर 75 लाख रुपयों के बदले गुलाब सिंह ने जम्मू और कश्मीर का राज्य अंग्रेज़ों से ख़रीदा और यह इतिहास में पहली बार हुआ कि ये तीन क्षेत्र एक साथ मिलकर स्वतन्त्र राज्य बने. ख़ुद को अंग्रेज़ों का ज़रख़रीद ग़ुलाम कहने वाला यह राजा और उसका खानदान ताउम्र अंग्रेज़ों का वफ़ादार रहा, 1857 का राष्ट्रीय विद्रोह हो कि तीस के दशक में पनपे अनेक राष्ट्रीय आन्दोलन, कश्मीर के राजाओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लगने वाले किसी भी विद्रोह को अपनी ज़मीन पर पनपने नहीं दिया, उन्होंने क़ीमत दी थी कश्मीर की और उसे हर क़ीमत पर वसूलना था. किसानों और बुनकरों से इस दर्ज़ा टैक्स वसूला गया कि उनका जीना मुहाल हो गया.
नेशनल कांफ्रेंस
राजा हरि सिंह का राज्य आते-आते बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी का गुस्सा फूटने लगा. 95 फ़ीसद मुस्लिम आबादी खेती-किसानी और बुनकर के व्यवसाय में लगी हुई थी और इन क्षेत्रों में भयानक शोषण बर्दाश्त से बाहर था. अंततः सन 1931 में विद्रोह फूट पड़ा तो राजा ने भयानक दमन किया. लेकिन अब यह आग रुकने वाली नहीं थी. शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में बनी मुस्लिम कांफ्रेंस 11 जून 1939 को नेशनल कांफ्रेंस बन गई और कांग्रेस के साथ मिलकर देश के मुक्ति आन्दोलन का हिस्सा बनी. सन 46 में शेख ने कश्मीर छोड़ो आन्दोलन शुरू किया और घोषणा की कि "कोई पवित्र विक्रय पत्र (इशारा अमृतसर समझौते की तरफ है) चार लाख लोगों की आज़ादी की आकांक्षा को दबा नहीं सकती."
47 में जब देश आज़ाद हो रहा था तो महाराजा हरि सिंह ने पहले तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों से अपने लिए आज़ादी की मांग की और टालमटोल करता रहा. उस समय नेहरु ने गृह मंत्री पटेल को लिखे पत्र में कहा कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर में घुसपैठ करके किसी बड़ी कार्रवाई को अंजाम देने की है. राजा के पास इकलौता रास्ता नेशनल कांफ्रेंस से तालमेल कर भारत के साथ जुड़ने का है. यह पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर आधिकारिक या अनाधिकारिक हमला मुश्किल कर देगा. काश यह सलाह मान ली गई होती! पर पटेल ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और उस समय राजा पर दबाव बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं की. लेकिन जब पाकिस्तान ने कबायलियों के भेस में आक्रमण कर दिया तो राजा के पास भारत से जुड़ने के अलावा कोई चारा न बचा. भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तख़त हुआ और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना - शेख अब्दुल्ला.
इतिहास के तथ्य अपनी जगह रह जाते हैं, भविष्य उनके सही-ग़लत की पहचान करता है. इसके बाद का कश्मीर का क़िस्सा इतिहास की क़ैद में उलझे भविष्य का क़िस्सा है. वह फिर कहीं, फिर कभी.
अशोक कुमार पाण्डेय (लेखक और कवि)