कब थमेगी आईआईटी की गिरती रैंक
९ सितम्बर २०१६दूसरी है क्वाकक्वारेली साइमंड्स (क्यूएस) वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिग्स. दोनों रैंकिंग्स में भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शैक्षणिक संस्थाओं का प्रदर्शन निराशाजनक ही है. देश में उच्च शिक्षा के सबसे बड़े प्रतिमान माने गए आईआईटी भी इसमें शामिल हैं.
रॉयटर्स के सर्वे में जहां भारत की सर्वोच्च शैक्षणिक संस्था आईआईटी को 72वां स्थान मिला है. टॉप 20 यूनिवर्सिटी में से 17 जापान और दक्षिण कोरिया में हैं. इसी तरह क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में भारत की कोई भी नामी आईआईटी वैश्विक स्तर पर टॉप 200 में जगह नहीं बना पाया है.
आईआईटी बंबई, मद्रास, कानपुर, खड़गपुर और रुड़की क्रमशः 219, 249, 302, 313 और 399 रैंकिंग के साथ टॉप 400 में ही आ पाए हैं. अन्य विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों की बात तो छोड़ ही दीजिए. उनका कहीं नाम ही नहीं है. हम बात कर रहे है जेएनयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी आदि जाने-माने संस्थानों की. बेशक कुछ राहतें भी हैं. क्यूएस के सर्वे के मुताबिक चार भारतीय संस्थान शोध इम्पैक्ट के लिहाज़ से दुनिया के शीर्ष सौ संस्थानों में जगह बनाने में सफल रहे हैं.
साइटैशन प्रति फैकल्टी यानी टीचर के उद्धरण या उल्लेख के हवाले से देखें तो आईआईएससी बंगलौर, विश्व के सर्वोच्च शोध संस्थानों में 11वें नंबर पर है. लेकिन आईआईटी मद्रास का नंबर पिछली बार के मुकाबले खिसककर 101वां हो गया है. क्यूएस की क्षेत्रीय रैंकिग्स के मुताबिक भारतीय संस्थान अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले बेहतर हैं लेकिन उनकी वैश्विक चुनौतियां कायम हैं.
ये सवाल उभरना लाजिमी है कि भारतीय उच्च शिक्षा सिस्टम की क्रीम मानी जाती आईआईटी जैसी संस्थाएं इन अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग्स में आख़िर इतनी कमतर क्यों रह जाती हैं? क्या ये देश के शैक्षिक तंत्र की बदहाली का संकेत है या रैंकिंग की प्रक्रियाओं और नतीजों में ही कोई गड़बड़ी है?
स्टूडेंट फैकल्टी रेशियो, छात्र अध्यापक अनुपात के मामले में आईआईटी पिछड़े हुए हैं. देश मे 16 आईआईटी हैं. छह और को मंजूरी मिल गई है. छात्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई है. लेकिन उस हिसाब से मुकम्मल फैकल्टी का अभाव है. अंतरारष्ट्रीय रैंकिंग में यहीं पर ये संस्थाएं मार खा जाती हैं क्योंकि फैकल्टी की योग्यता के निर्धारण के वैश्विक पैमाने कड़े हैं. आमतौर पर देश के विश्वविद्यालयों में रिसर्च स्टाफ और पोस्ट डॉक्टरल स्कॉलरों को फैकल्टी रूप में कहीं अस्थायी तो कहीं स्थायी नियुक्ति मिल जाती है. ये चलन आम है. भले ही आईआईटी में ये चलन नहीं हैं और वहां पर फैकल्टी की नियुक्ति सख्त मापदंडों पर होती है फिर भी कुल रैंकिंग में जब गिनती होती है तो वे पीछे चले जाते हैं.
शोध संस्कृति दूसरा प्रमुख मापदंड है. लेकिन इसमें भी आईआईटी पिछड़ जाते हैं और इसकी कई वजहें हैं- फंड की किल्लत और शोध के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढांचा. वे पेशेवर तैयार करने वाले संस्थान के रूप में पहचान जाते हैं, न कि शोधकर्ता तैयार करने वाले संस्थान के रूप में और शोध के प्रति छात्रों में भी दिलचस्पी का अभाव देखा जाता है. अंतरराष्ट्रीयकरण भी संस्थानों की मार्किंग का एक पैमाना है.
बेहतर रैंकिग्स के लिए इंडस्ट्री के साथ समन्वय और गठजोड़ का भी एक पैमाना है. इसमें भारतीय संस्थानों का अपना रवैया सुधारना होगा. भले ही ये कोई प्रत्यक्ष पैमाना न हो लेकिन रैंकिंग को प्रभावित करने में इसका अपना रोल है. संस्थान उद्योगों से कितना अनुदान ले पाते हैं, उद्योग से कितने विशेषज्ञ बतौर फैकल्टी संस्थान में शामिल हो पाते हैं, किस स्तर पर फैकल्टी और विशेषज्ञों की परस्पर आवाजाही संस्थान संभव करा पाता है, कितने छात्र उद्योग की धारा में जुड़ने से पहले संस्थान से लाभान्वित महसूस करते हैं- ये सारी बातें उच्च शैक्षणिक संस्थान के नंबर बढ़ाती हैं. लेकिन हम जानते हैं इस मामले में भारतीय संस्थानों ख़ासकर विश्वविद्यालयों की हालत क्या है.
आईआईटी को ही उच्च शिक्षा सिस्टम का इकलौता बेंचमार्क मानते रहने की मानसिकता से भी ऊपर उठना होगा. क्या आईआईटी जैसा परिदृश्य देश के विश्वविद्यालयों में नहीं लाया जा सकता जो एक जर्जर तंत्र का शिकार बने हुए हैं और अंदरूनी राजनीति और अफसरशाही ने उनका लगभग बंटाधार किया हुआ है. वहां योग्य और जानकार फैकल्टी का अभाव है, छात्र अध्यापक अनुपात बिगड़ा हुआ है, छात्र भी महज जैसे डिग्रियां लेकर यूनिवर्सिटी परिसरों से निकल रहे हैं और उस अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने को विवश हैं जिसका डंका तो इधर खूब बजता सुनाई देता है लेकिन जो लगातार एक ग्रोथलेस इकॉनमी बनी हुई है.