1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

जासूसी का डर मिटाना सरकार की जिम्मेदारी

१६ मार्च २०१५

राहुल गांधी की प्रोफाइलिंग के मामले में सरकार ने जासूसी से इंकार किया है. कुलदीप कुमार का कहना है कि कई बार निरर्थक बहसों के भी कुछ सार्थक परिणाम निकल आते हैं, और इस मामले में ऐसा ही लग रहा है.

https://p.dw.com/p/1ErVQ
तस्वीर: DW/S. Wahhed

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी यूं तो कई हफ्तों से गायब हैं, कहा जा रहा है कि वह चिंतन-मनन करने के लिए छुट्टी पर चले गए हैं, लेकिन संसद और संसद से बाहर हो रही गर्मागर्म बहसों में पूरी तरह से उपस्थित हैं. उनके बारे में पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर द्वारा जानकारी इकट्ठा करने को लेकर कांग्रेस ने संसद के दोनों सदनों में हंगामा मचाया हुआ है. वह इसे अपने शीर्ष नेता की जासूसी का मामला बता रही है और संसद में सरकार को घेरने की कोशिश कर रही है. इस मुद्दे पर आज उसने राज्यसभा से वाकआउट भी किया.

उधर दिल्ली पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी ने कहा है कि पुलिस इस तरह की जानकारी सामान्य रूप से धानमंत्री और राष्ट्रपति सहित अति महत्वपूर्ण लोगों के बारे में इकट्ठा करती रहती है और इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है. पुलिसकर्मी एक फॉर्म लेकर जाते हैं और उस व्यक्ति की आंखों के रंग, बालों के रंग, जूते का नंबर जैसी छोटी-से-छोटी जानकारी भी हासिल करते हैं. यह सब 1861 में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के दौरान बने कानून के तहत किया जाता है. इस कानून के तहत ही 1958 में महत्वपूर्ण व्यक्तियों का प्रोफ़ाइल बनाने के लिए फॉर्म तैयार किया गया था. इस फॉर्म में थोड़ा सा बदलाव 1999 में किया गया था. बस्सी का कहना है कि अब इसमें काफी बदलाव सुझाए गए हैं और वे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के विचाराधीन हैं.

कई बार निरर्थक बहसों के भी कुछ सार्थक परिणाम निकल आते हैं, और इस मामले में ऐसा ही लग रहा है. कांग्रेस के विरोध में अधिक दम नहीं है और लग रहा है कि पार्टी नेता गांधी परिवार के प्रति अपनी भक्ति का प्रदर्शन करने के लिए ही हंगामा कर रहे हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली के इस तर्क में जान है कि जूते का नंबर भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है और राजीव गांधी के शव के अवशेषों को उनके जूते के कारण ही पहचाना जा सका था. उनका यह कहना भी तर्कसंगत लगता है कि जासूसी करने के लिए कोई पुलिसकर्मी हाथ में फॉर्म लेकर नहीं जाता.

लेकिन इस विवाद से एक बार यह प्रश्न तो फिर से चर्चा के केंद्र में आ ही गया है कि आजादी के 67 साल बाद भी देश अंग्रेज शासकों द्वारा बनाए गए कानूनों को क्यों ढो रहा है? क्या यह भारत की स्वतंत्रता और प्रभुसत्ता पर एक बदनुमा दाग नहीं है कि उसके नागरिक विदेशी शासकों द्वारा जनता के दमन के लिए बनाए गए कानूनों के शिकंजे में जकड़े रहें? क्या सरकार इन पुराने पड़ गए सड़े-गले कानूनों को समाप्त या बदल नहीं सकती? दूसरे, इस बहस के कारण एक बार फिर नागरिक स्वतंत्रता का सवाल राजनीतिक चर्चा के केंद्र में आ गया है और सभी राजनीतिक दल इस पर विचार कर रहे हैं. आशा की जानी चाहिए कि इस बहस से गर्मी कम, रोशनी ज्यादा निकलेगी.

इस विवाद की पृष्ठभूमि में यह सच्चाई भी है कि जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में सत्ता में आई है, तब से राजनीतिक नेताओं समेत सामान्य नागरिक के मन के भीतर भी यह आशंका घर करती जा रही है कि अब पुलिस और खुफिया एजेंसियां लोगों पर अधिक सख्ती से नजर रख रही हैं. ये कहानियां झूठी हैं या सच्ची, कहना मुश्किल है लेकिन यह सच है कि सरकार के सत्ता में आने के कुछ ही हफ्तों के भीतर राजधानी दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में इन्हें सुना जा सकता था. इनके अनुसार एक केंद्रीय मंत्री को हवाई अड्डे पर निर्देश मिला कि वह जींस पहन कर न जाये और तुरंत कपड़े बदले.

इस तरह की कहानियों से विपक्ष यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि जब मंत्रियों तक पर ऐसी कड़ी नजर रखी जा रही है, तो राजनीतिक विरोधियों की किस तरह की निगरानी की जा रही होगी. गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तब एक महिला पर पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल करके चौबीस घंटे निगाह रखी गई थी. नागरिक स्वतंत्रताओं पर आ रहे खतरों की ओर इशारा करते हुए कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने आज कहा कि पहले धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किया गया, और अब राजनीतिक स्वतंत्रता पर किया जा रहा है.

यह एक हकीकत है कि पिछले नौ माह के भीतर अल्पसंख्यकों के धर्मस्थलों पर हमले बढ़ गए हैं और उनके बारे में भी विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू जागरण मंच और खुद शासक दल बीजेपी के कई सांसद और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे बड़े नेता भड़काऊ और विवादास्पद बयान देते रहते हैं. हाल ही में ग्रीनपीस की कार्यकर्ता प्रिया पिल्लै को हवाई जहाज से उतार कर लंदन जाने से रोका गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत बताया. ऐसे माहौल में यदि विपक्षी नेताओं को सरकार की ओर से जासूसी किए जाने का डर सताने लगा है तो उसे निराधार भी नहीं कहा जा सकता. इस डर को दूर करना सरकार की जिम्मेदारी है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार