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ऐतिहासिक ही नहीं, साहसी भी

प्रभाकर७ जुलाई २०१५

जिस देश में अकेली मांओं को अब तक समाज में तिरस्कार की निगाह से देखा जाता हो और लगभग हर जगह बच्चे के बाप को लेकर सवाल उठाए जाते हों, वहां सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महज ऐतिहासिक नहीं बल्कि साहसिक भी है.

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तस्वीर: Fotolia/Oksana Kuzmina

इस फैसले से जहां अब ऐसी माएं समाज में कुछ हद तक ही सही, सिर उठा कर जी सकेंगी. वहीं उनको बच्चे के दाखिले से लेकर पासपोर्ट बनवाने तक तमाम जगह बाप के नाम वाला कॉलम मुंह चिढ़ाता नहीं नजर आएगा.
पश्चिमी बयार और प्रगतिशीलता के तमाम दावों के बावजूद भारत में अकले मां को अब भी संदेह भरी निगाहों से देखा जाता है. हमारा समाज चाहे कितना भी खुलेपन और आधुनिक होने का दावा करे, हकीकत इससे उलट है. यहां अकेली या अविवाहित मां को तिरस्कार की निगाहों से देखा जाता है. सबसे पहले तो उसके चरित्र पर ही अंगुली उठाई जाती है. इसके अलावा ऐसी महिलाओं को आसानी से कहीं किराए पर मकान नहीं मिलता. अगर वह महिला संपन्न है तो भी उसके बच्चे के बाप के नाम पर मौके-बेमौके सवाल पूछे जाते हैं.
समाज में अब तक इनकी स्थिति एक अछूत की तरह ही थी. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में रहने वाली सुष्मिता मंडल को बरसों ऐसे सवालों से जूझना पड़ा था. अपने प्रेमी के साथ लिव-इन रिलेश्न में रहने वाली सुष्मिता के गर्भ ठहर जाने पर उसके प्रेमी ने अबार्शन की सलाह दी थी. लेकिन सुष्मिता इसके लिए राजी नहीं हुई. इसी बात पर मामला इतना बढ़ा कि दोनों के रिश्ते टूट गए. आखिर सुष्मिता ने समाज का सामना करते हुए अपने बच्चे को धरती पर लाने का फैसला किया. लेकिन यह तो जैसे उसके लिए समस्याओं की शुरूआत भर थी. सुष्मिता बताती है, 'मुझे बच्चे के जन्म के समय से कदम-कदम पर उसके बाप को लेकर चुभते सवालों का सामना करना पड़ा. जन्म के समय अस्पताल में, दाखिले के समय स्कूल में और उसके बाद विभिन्न आवेदनों के दौरान मुझे इसी समस्या से जूझना पड़ा.' वह बताती है कि इसी वजह से एक नामी स्कूल ने बच्चे को दाखिला देने से मना कर दिया. दलील यह थी कि इससे दूसरे बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से वह प्रसन्न है. उसका कहना है कि कानूनी तौैर पर अकेली मां को बच्चे को अभिभावक घोषित कर सुप्रीम कोर्ट ने हम जैसी महिलाओं की काफी मुश्किलें आसान कर दी हैं.
जाने-माने समाजशास्त्री सुनील चटर्जी कहते हैं, 'सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानूनी अड़चनें भले दूर हो गई हों, यह समस्या नहीं सुलझेगी.' उनके मुताबिक, इसके लिए समाज का नजरिया बदलना जरूरी है. वह कहते हैं कि हमारे समाज में ऐसी महिलाओं को अब भी सीधे चरित्रहीन करार दिया जाता है. लेकिन हर मामले में ऐसा सही नहीं है. कोई भी उन हालातों के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाता जिसकी वजह से उस महिला ने अकेली मां बनने का फैसला किया है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से ऐसी महिलाओं और महिला अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों ने कुछ हद तक राहत की सांस ली है. लेकिन उनका कहना है कि ऐसी महिलाओं को समाज में उनका हक और वाजिब स्थान दिलाने की दिशा में अदालत का फैसला तो महज एक शुरूआत है. अभी मंजिल काफी दूर है. लेकिन उनको इसी बात की राहत है देर से ही सही, इस मामले में एक ठोस शुरूआत तो हो ही गई है.