इतिहास में आज: 24 मार्च
२२ मार्च २०१४टीबी का इतिहास पुराना है और इसे अलग अलग समय में अलग नामों से जाना जाता रहा है. जर्मन वैज्ञानिक रॉबर्ट कॉख ने 1882 में 24 मार्च को टीबी के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलॉसिस के बारे में बताया. उनकी इस खोज के लिए उन्हें 1905 में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. इससे पहले 1720 में वैज्ञानिक बेंजामिन मार्टेन द्वारा बताए गए सिद्धांत के अनुसार इसके लिए उन सूक्ष्म जीवों को जिम्मेदार बताया गया था, जो हवा में मरीज तक पहुंचते हैं.
टीबी की रोकथाम के लिए बीसीजी टीके का इस्तेमाल होता है. इसका संक्रमण खांसी, छींक या अन्य तरह के संपर्क से वायु द्वारा फैलता है. क्षय रोग या तपेदिक के नाम से भी जानी जाने वाली इस बीमारी में आम तौर पर फेफड़ों में संक्रमण होता है. लेकिन टीबी कई तरह की होती है और यह शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकती हैं. अगर समय पर सही इलाज न किया जाए तो यह रोग जानलेवा हो सकता है.
दुनिया भर में टीबी के ऐसे नमूने सामने आ रहे हैं जिन पर दवाइयों का असर खत्म होता जा रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों के अनुसार दवाइयों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता वाले टीबी के मामले बढ़ रहे हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि टीबी का इलाज लंबा होता है. टीबी के मरीजों को छह महीने तक भारी दवाइयां लेते रहना होता है. कई बार लोग इतने लंबे समय तक इलाज जारी नहीं रख पाते.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2012 में दुनिया भर में 86 लाख लाख लोग तपेदिक के शिकार हुए और 13 लाख की मौत हो गई. टीबी के कुल मरीजों में 26 फीसदी भारत में हैं.