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आदिवासियों की सच्ची परवाह जरूरी

३० अगस्त २०१५

जल जंगल जमीन से जुड़े एक नये अभियान की याद भारत सरकार को आई है. ये अभियान वनाधिकार कानून 2008 से जुड़ा है. इसका मकसद जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को जागरूक करना है. लेकिन जागरूकता अभियान पर संदेह बने हुए हैं.

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तस्वीर: dpa - Bildarchiv

वनाधिकार कानून 2008 जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को कुछ ठोस अधिकार देता है और जल, जंगल, जमीन पर उनके मालिकाना हक की पैरवी करता है. लेकिन सरकार का अब कहना है कि इस अधिकार के बारे में आदिवासियों को और आम जनता को जागरूक करना जरूरी है. कोई पूछे कि सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल में पले बढ़े और उसके साथ एक सांस्कृतिक नाता रखने वाले आदिवासी तो जंगलों के बारे में पहले से ही जागरूक हैं. वे तो उनकी हिफाजत करते आए हैं. फिर अचानक उन्हें जागरूक करने की सरकार को क्यों सूझी है. क्या इसमें सदाशयता देखी जाए या इसके पीछे कहीं कोई दूसरा हित तो नहीं है. क्या ऐसा तो नहीं है कि ये आदिवासियों के लिए एक संकेत है कि वे जल जंगल जमीन पर अपने पुश्तैनी हक के बारे में फिर से सोचना शुरू कर दें?

आदिवासी हमेशा एक जैसी हालत में नहीं रह सकते. ये भी सच है. लेकिन उन्हें आधुनिक बनाने के लिए जो तरतीबें सरकार के पास हैं वे उन्हें और डराती ही हैं. उड़ीसा के नियमागिरी इलाके को लें. एक अभियान ऐसा चलाया जाना चाहिए जिसमें सरकारी अमला अपने फाइलवाद और घोषणावाद से निकलकर विश्वास कायम करने का जमीनी काम करे. उन लोगों के बीच जाए वहां रहे. उन्हें आधुनिकता के सही मायने समझाए. मोबाइल फ़ोन और गाड़ी बेशक आधुनिक जमाने के प्रतीक हैं लेकिन आधुनिकता विचारों की भी होती है. इसलिए एक व्यापक और समग्र दृष्टिकोण वाला अभियान चाहिए जिसमें आदिवासियों की आशंकाओं के निराकरण का कोरा आश्वासन न हो, बल्कि एक ठोस कार्ययोजना हो और उस योजना के पायलट प्रोजेक्ट चलाए जाएं.

Ureinwohner Kinder in Dorfschule in Madhya Pradesh
तस्वीर: Vishvaratna Srivastava

90 के दशक के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद जंगलों के दायरे तो सिकुड़े ही हैं. जंगलों से आदिवासियों के विस्थापन की दर बढ़ी. एक तरफ़ उनका पलायन और दूसरी तरफ उनके पुनर्वास का दयनीय आंकड़ा. ये नाकामी नहीं तो और क्या है. ताजा अभियान के मामले में बुनियादी सवाल ये है कि क्या यह अभियान आदिवासियों की आकांक्षाओं को पूरा कर पाएगा? अभियान का स्वरूप ऐसा रहे कि उसमें आदिवासियों के स्वावलंबन को ठेस न पहुंचे. आप उनके बीच गूगल मैप लेकर उनकी जमीन के दायरे की पहचान के लिए नहीं जा सकते. गूगल मैप से पहले एक ऐसी टीम चाहिए जो आदिवासियों को बताए कि उनके घरों के पास ये बुनियादी सुविधाएं आएंगी. इससे उनका और उनके बच्चों का भविष्य सुधरेगा. लेकिन मुख्यधारा में लाने के नाम पर अगर आप ये कहेंगे कि यहां जंगल काटना जरूरी है क्योंकि एक बड़ा निजी संस्थान बनेगा या यहां का खनिज निकाला जाएगा तो आदिवासी इसे अपने हक पर हमला समझेंगे. ये एक ऐसी जटिल प्रक्रिया है जहां सरकारों को अधिकार, विस्थापन और पुनर्वास जैसे मामलों पर बहुत अधिक संवेदनशीलता का परिचय देना होगा. लेकिन हाल के घटनाक्रम बताते हैं कि जल जंगल जमीन का दोहन करने के बाद सरकारें वहां के मूल निवासियों को भूल जाती हैं और वे दर दर भटकते हैं.

उत्तराखंड जैसे राज्य का ही उदाहरण लें जिसकी स्थापना 2000 में पहाड़ी राज्य के रूप में हुई थी लेकिन आज इस पहाड़ी राज्य की डेमोग्राफी आप देख लीजिए और गांवों का हाल देख लीजिए. ये तो उन किसानों की बात है जिनके पास खेत थे पशु थे, एक पर्यावरण था. उत्तर भारत, पूर्वोत्तर, और दक्षिण के जंगलों के उन आदिवासियों का क्या जिन्हें जब चाहे उनकी जमीनो से बेदखल कर दिया जाता है और वे दमकते झूमते और चूर भारत को हैरान परेशान होकर देख रहे हैं. इसका अर्थ ये भी है कि इस देश में कोई भी सरकार आए, विकास और अर्थनीति का मॉडल, असंतुलन और गड़बड़ियों से भरा है. इस मॉडल में आदिवासियों और किसानों की जगह नहीं बन पाई. इसलिए कोई भी अभियान तब तक अधूरा रहता है जब तक वो अपने स्वरूप में समावेशी नहीं होता.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी