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आईआईटीः फीस नहीं गुणवत्ता बढ़ाने की जरूरत

१८ मार्च २०१६

जेएनयू विवाद में करदाताओं के पैसे की बर्बादी की बहस के बीच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान आईआईटी की फीस में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी के प्रस्तावों ने शिक्षा के गलियारों में हलचल मचा दी है.

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Symbolbild Indischer Student
तस्वीर: picture alliance/Godong

हालांकि अभी आईआईटी की स्थायी समिति ने इसकी सिफारिश भर की है और अंदाजा लगाया जा रहा है कि संभवत: इतनी आसमानी बढ़ोतरी न हो और कोई बीच का रास्ता निकाला जाए. लेकिन इसमें ये इशारा तो आ ही गया है कि सरकार अब उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी से भी मुक्त होना चाहती है और उसकी नीतियां भी बाजार में मांग और आपूर्त्ति और मुद्रास्फीति के आंकड़ों से ही तय होंगी.

एक कल्याणकारी राज्य की भावना इसी में है कि सरकार वंचित तबके के लिये स्वास्थ्य और शिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना अपना दायित्व समझे. लेकिन पिछले कुछ दशकों में केंद्र और राज्य स्तरों पर सभी सरकारें शिक्षा के निजीकरण और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी के मॉडल को बढ़ावा दे रही हैं. स्कूली शिक्षा में तो अब हर वो व्यक्ति जो निजी स्कूल की फीस वहन कर सकता है, वो भी अपना पेट काटकर अपने बच्चे को किसी कथित अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने को ही वरीयता देता है.

हालात ये हैं कि छात्रों के अभाव में सरकारी स्कूलों में शिक्षक खाली बैठे रहते हैं. उच्च शिक्षा के सरकारी संस्थानों के प्रति छात्रों के रूझान का एक कारण ये भी होता है कि वहां फीस निजी संस्थानों की तुलना में काफी कम रहती है. लेकिन अगर सरकार इस तरह से फीस बढ़ाती है तो ये कदम छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों की ओर धकेलने के समान होगा.

भारत में इस समय 17 आईआईटी हैं. इन संस्थानों में स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिये हर छात्र पर प्रति वर्ष औसतन पांच लाख रुपये खर्च होते हैं. अभी छात्रों से 90 हज़ार रुपए फीस ली जाती है. लेकिन अब आईआईटी की स्थायी समिति ने ये माना है कि छात्रों से 60 प्रतिशत वसूला जाना चाहिये लिहाजा फीस बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी जाए. अब ऐसे में निर्धन तबके के छात्र कहां जाएंगे? इस बारे में ये दलील दी जा रही है कि छात्रवृत्ति के अवसर हैं और शैक्षणिक लोन लेने का विकल्प भी है. इस तरह से छात्रों को प्रवेश के साथ ही बाजारवादी दुष्चक्र का सामना भी करना पड़ेगा. जहां आप कर्ज और उधार लेकर गाड़ी, बंगला, एसी और विलासिता की अन्य सामग्रियां खरीदते हैं, वैसे ही उधार लेकर शिक्षा भी हासिल कीजिए. यानी शिक्षा अब बुनियादी जरूरत और अधिकार से ज्यादा एक कमोडिटी की तरह पेश की जा रही है. जो इस उत्पाद को नहीं खरीद पाएगा वो मुख्यधारा के विकास और तरक्की के पैमानों से बाहर छूट जाएगा.

अगर हम देश में शिक्षा के हालात की बात करें तो प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा में गिरावट का ग्राफ किसी से छिपा नहीं है. साक्षरों का और स्कूलों में नामांकन का आंकड़ा तो बढ़ा है लेकिन वो आंकड़ा एक मुकम्मल वर्कफोर्स में तब्दील होता हुआ नहीं दिखा है. जाहिर है शिक्षा का प्रदूषित पर्यावरण इसके लिए जिम्मेदार है. आज हालत ये है कि देश की कोई भी यूनिवर्सिटी या तकनीकी या वैज्ञानिक संस्थान दुनिया के शीर्ष 100 संस्थानों में जगह नहीं बना पाता है. शिक्षा को आवंटित बजट की स्थिति भी स्पष्ट है कि किस तरह उसमें साल दर साल निरंतर कटौती की जा रही है. और उस मद में जाने वाला पैसा हथियारों की खरीद और सैन्य साजोसामान को जमा करने में लग रहा है. और अब तो जिस तरह से बिजनेस जगत के एक से एक सूरमा, सरकारी बैंको के करोड़ों के डिफॉल्टर पाए जा रहे हैं तो ऐसे में ये आक्रोश तो बनता ही है कि आखिर ये पैसा जनता का ही तो था जो जनता के काम में लगता. शिक्षा में सुधार ऐसा ही एक काम होना था.

दरअसल आईआईटी में फीस बढाने का मुद्दा आईआईटी की वित्तीय स्वायत्तता से भी जुड़ता है. फीस बढ़ जाने से आईआईटी में टीचिंग और गैर-टीचिंग स्टाफ की तनख्वाहों और संस्थान के रखरखाव पर होने वाले व्यय का भार कम हो जाएगा. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा एक तरह से ये संकेत दिया जा रहा है कि आईआईटी को अपने खर्चे का इंतजाम अब अधिक से अधिक खुद ही करना होगा. फीस में अगर अत्यधिक बढ़ोतरी की जाती है तो इसका सीधा असर उस तबके पर पड़ेगा जो गरीब है और सामाजिक स्तर पर बहुत कमजोर स्थिति में है.

हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी में दाखिला लेता भारतीय छात्र
विदेशी संस्थानों में भारतीय छात्रों की मांगतस्वीर: picture-alliance/dpa

दरअसल फीस और स्तर के मामलों में सरकारी और निजी शैक्षणिक संस्थान दो ध्रुव तो हैं ही, सरकार के विभिन्न संस्थानों में भी व्यापक फर्क देखने को मिलता है. सरकार को एक मानक नीति बनानी चाहिये जिसमें सभी सरकारी और निजी उच्च शिक्षा संस्थानों की फीस में किसी तरह का भेद न रह जाए. क्या ही अच्छा हो कि सरकार इस तरह की एकीकृत नीति बनाए कि फीस के मामले पर कोई विवाद ही न हो और शिक्षा की गुणवत्ता पैसे खर्च करने की ताकत से नहीं बल्कि शिक्षा के स्तर से आंकी जाए.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी