अलविदा टाइपराइटर
भारत में कई जगहों पर अब भी टाइपराइटर का इस्तेमाल होता है. लेकिन नए टाइपराइटों का उत्पादन बंद होने से ये खटखटाती मशीनें इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी.
टाइपिंग सीखने के स्कूल
1990 के दशक तक भारत में लाखों टाइपिंग स्कूल थे. इन स्कूलों के जरिये लोग टाइपराइटर चलाना सीखते थे. लेकिन 2000 के आस पास देश में तेजी से कप्यूटरीकरण होने लगा और टाइपिंग स्कूल धीरे धीरे बंद होने लगे. सन 2000 में ही स्वीडिश कंपनी फासिट और अमेरिकन कंपनी रेमिंग्टन ने भी टाइपराइटरों का उत्पादन बंद कर दिया.
टाइपराइटर की अहमियत
कचहरी और सरकारी दफ्तरों में टाइपराइटर काफी इस्तेमाल हुए. अच्छी टाइपिंग स्पीड के चलते हजारों लोगों को नौकरियां भी मिलीं. टाइपराइटर की वजह से महिलाओं को भी नौकरी पाने में आसानी हुई. 20वीं सदी में टाइपराइटर ने भारत की जॉब मार्केट की तस्वीर बदली.
अभी भी टाइपिंग
नई दिल्ली समेत कुछ शहरों में अब भी इक्का दुक्का टाइपिंग स्कूल हैं. ऐसे स्कूलों में बेहद कम दाम में टाइपिंग सीखी जाती है. कंप्यूटर और टाइपराइट का कीबोर्ड एक जैसा होने की वजह से भी इनकी अहमियत कुछ हद तक बची हुई है.
समय की जंग
रेमिंग्टन और फासिट जैसी बड़ी कंपनियों के भारत से निकलने के बाद 2009 में भारतीय कंपनी गोदरेज और बॉयस ने टाइपराइटरों का उत्पादन बंद कर दिया. अब पुराने टाइपराइटरों से ही काम चलाया जा रहा है और धीरे धीरे उनकी जगह कंप्यूटर लाए जा रहे हैं.
टाइपराइट मैकेनिकों की आखिरी पीढ़ी
भारत के कुछ शहरों में अब भी टाइपराइटर की मरम्मत करने वाले लोग मिल जाते हैं. पुराने टाइपराइटरों के पुर्जे अदला बदली कर वे इन मशीनों को ठीक करते हैं. मैकेनिक भी जानते हैं कि उनका पेशा आखिरी सांसें ले रहा है.
अभी कहां कहां हैं टाइपराइटर
फिलहाल अदालतों और परिवहन विभाग के दफ्तरों के बाहर टाइपराइटर दिख जाते हैं. बहुत सी जगहों पर हलफनामे जैसे सरकारी दस्तावेज अब भी इन्हीं की मदद से तैयार किये जाते हैं.
सजावट का हिस्सा
पश्चिम में टाइपराइटर अब सजावट का समान बन चुके हैं. भारत में भी ये मशीनें धीरे धीरे इतिहास का हिस्सा बनती जा रही हैं. रिपोर्ट: हेलेना काशेल/ओएसजे