अब संसदीय समिति ने शुरू की चुनाव सुधारों की बहस
२१ अगस्त २०१७अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से 15 अगस्त, 1947 को मुक्ति पाने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के मार्गदर्शन में बने संविधान में भारत के लिए वयस्क मताधिकार के आधार पर चलने वाली संसदीय प्रणाली को चुना गया. उस समय यह एक लगभग क्रांतिकारी कदम था क्योंकि विकसित देशों के बीच भी ऐसे देश थे जहां सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार नहीं था. फिर भारत एक पिछड़ा हुआ और गरीब देश था जिसकी अधिकांश आबादी शिक्षित तो क्या, साक्षर भी नहीं थी. लेकिन चुनाव के लिए जो प्रणाली चुनी गई उसमें यह व्यवस्था थी कि जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट मिलें, उसे निर्वाचित घोषित किया जाए भले ही उसे अपने निकटस्थ प्रतिद्वंद्वी से एक वोट ही ज्यादा मिला हो. इस प्रणाली में यह स्वाभाविक है कि बहुत कम विजयी उम्मीदवार ऐसे निकलें जिन्हें उनके निर्वाचन क्षेत्र के पचास प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने वोट दिया हो. इसी तरह शुरुआती दशकों को छोडकर बाद के वर्षों में बहुत कम ऐसा हुआ कि पचास प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का वोट पाने वाली राजनीतिक पार्टी ने केंद्र में या राज्यों में सरकार बनाई हो. इस समय भी केवल 31 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन पाने वाली भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ है.
चुनाव सुधारों की जरूरत पर बहुत लंबे समय से विचार-विमर्श और बहस-मुबाहिसा होता रहा है. कई बार निर्वाचन आयोग ने भी इस पर विचार किया है और विधि मंत्रालय एवं विधि आयोग भी समय-समय पर इस विषय पर प्रपत्र जारी करता रहा है. चुनावों में खर्च की जाने वाली धनराशि का सवाल भी बहुत महत्वपूर्ण बन गया है क्योंकि भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी का एक बहुत बड़ा कारण चुनाव प्रचार के लिए धन जुटाने की मजबूरी है. हालांकि निर्वाचन आयोग अभी तक इसके पक्ष में नहीं है, लेकिन फिर भी अनेक कोनों से राज्य द्वारा चुनावों की फंडिंग किए जाने की मांग उठती रहती है. इसी तरह आपराधिक मामलों में लिप्त व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से कैसे रोका जाए, यह भी बहुत महत्वपूर्ण और पेचीदा मसला है.
लेकिन अब कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा की अध्यक्षता वाली सर्वदलीय संसदीय समिति ने सभी राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग के पास चुनाव सुधारों के बारे में एक प्रश्नावली भेजकर उनके विचार जानने चाहे हैं. इसमें यह सवाल भी शामिल है कि क्या केवल एक वोट अधिक मिलने के आधार पर किसी उम्मीदवार को विजयी घोषित करने वाली प्रणाली, जिसे फ़र्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली कहा जाता है, जारी रहनी चाहिए या इसमें बदलाव की जरूरत है? और यदि बदलाव की जरूरत है, तो फिर उसकी रूपरेखा क्या होनी चाहिए? पता चला है कि मार्च में घोषित उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पुनर्विचार को और अधिक गति दी है क्योंकि केवल 39 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा ने वहां 300 से अधिक सीटें प्राप्त की हैं. इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि चुनावों में मतदाताओं के बहुमत का प्रतिबिंबन विधायिका में किस तरह सुनिश्चित किया जाए.
अभी तक यह व्यवस्था है कि जब तक किसी व्यक्ति पर आरोप अदालत में सिद्ध न हो जाए, तब तक न सिर्फ वह चुनाव लड़ सकता है बल्कि मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी बन सकता है. कहावत है कि न्याय का चक्का बहुत धीरे-धीरे घूमता है, और वास्तविकता यह है कि वह भारत में जितना धीमा घूमता है, उतना शायद ही किसी अन्य देश में घूमता हो. राजनीतिक नेता यदि निचली अदालत में मुकदमा हार भी जाए, तो भी वह सुप्रीम कोर्ट तक अपील करता रहता है. और इस सब में दशकों का समय निकल जाता है और वह यदि वास्तव में दोषी है भी, तब भी वह इस पूरे समय सत्ता सुख भोग सकता है. इसलिए निर्वाचन आयोग आदि का यह विचार रहा है कि यदि किसी उम्मीदवार के खिलाफ अदालत आरोप तय कर दे, तो उसके चुनाव लड़ने पर तत्काल प्रतिबंध लग जाना चाहिए. यदि वह आरोपों से बरी हो जाए, तब वह फिर से चुनावी राजनीति में प्रवेश कर सकता है. मीडिया समूहों में राजनीतिक दलों और नेताओं के स्वामित्व और कुछेक हाथों में मीडिया का केन्द्रित हो जाना भी ऐसे मुद्दे हैं जिन पर विचार हो रहा है और संसदीय समिति ने राजनीतिक दलों से उनके विचार पूछे हैं. यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि राजनीतिक दलों के बीच इन मुद्दों पर कोई आम राय बनती है या नहीं, और यदि बनती है तो वह क्या है?