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अफसरों को राजनीतिक रूप से तटस्थ बनाएं

१३ जुलाई २०१५

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो के खिलाफ एक अफसर की धमकी के आरोपों के बाद नौकरशाही और नेताओं के रिश्ते बहस के केंद्र में हैं. नेता, अफसर और अपराध की धुरी में अब दरार दिखने लगा है.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari

भारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही की क्या भूमिका है? उसका राजनीतिक नेतृत्व, चुने हुए जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों के साथ क्या रिश्ता है? क्या इस समय जो रिश्ता है वह ठीक है और बरकरार रहना चाहिए या उसमें बदलाव की जरूरत है? ये सभी सवाल समय-समय पर उठते रहे हैं क्योंकि अक्सर देखा गया है कि ईमानदार और अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार काम करने वाले अफसरों को अपने अच्छे काम का ईनाम तबादले के रूप में मिलता है. पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब ईमानदार अफसरों को औसतन साल में दो तबादले झेलने पड़ते हैं. इस सबका उनके पारिवारिक जीवन, बच्चों की शिक्षा और सरकारी कामकाज पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है.

इन दिनों उत्तर प्रदेश में जिस तरह का हैरतअंगेज घटनाक्रम चल रहा है, उसके कारण नौकरशाही और राजनेताओं के बीच के रिश्ते का सवाल एक बार फिर महत्वपूर्ण होकर उभर आया है. लोकतंत्र में नौकरशाही को सरकार का फौलादी फ्रेम कहा जाता है. सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, लेकिन नौकरशाही स्थिर रहती है. नौकरशाही का काम सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों और योजनाओं को लागू करना है और कानून की परिधि के भीतर बने रहना है. लेकिन देश आजाद होने के बाद से जैसे-जैसे सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता गया, शक्तिशाली नेताओं और अफसरों के बीच का संबंध भी बदलता गया. अफसरों की निष्ठा सरकार के प्रति है, किसी दल विशेष के प्रति नहीं, क्योंकि आज यदि एक दल सत्ता में है तो कल वही विपक्ष में हो सकता है. अफसरों को राजनीतिक रूप से तटस्थ होना चाहिए.

लेकिन ऐसा है नहीं. सत्ता में आने के बाद नेताओं ने नौकरशाही को निहित स्वार्थों, जाति, धर्म और क्षेत्रीय आधार पर बांटना शुरू कर दिया क्योंकि अफसरों के जरिये ही वे अपना भ्रष्टाचार कर सकते थे. अफसरों ने भी बहती गंगा में हाथ धोना बेहतर समझा और मंत्रियों की कमाई कराने में मदद करने के साथ-साथ खुद भी कमाई की. नतीजा यह है कि अब यह बात सब जानते हैं कि कौन-सा अफसर किस नेता के नजदीक है. जब वह नेता सत्ता में होता है तो अफसर की भी पौ-बारह होती है. जब वह सत्ता से हट जाता है तो अफसर का भी तबादला हो जाता है. जो अफसर मंत्रियों या शक्तिशाली नेताओं की हुक्मउदूली करते हैं, उन्हें इसका फल भुगतना पड़ता है.

उत्तर प्रदेश में महानिरीक्षक स्तर के एक आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर और उनकी पत्नी नूतन ठाकुर के खिलाफ कुछ महीने पहले एक महिला ने लखनऊ के एक थाने में बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई थी. नूतन ठाकुर सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उन्होंने हाल ही में राज्य के एक मंत्री के खिलाफ पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराई है. अमिताभ ठाकुर का आरोप है कि इससे खफा होकर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उन्हें फोन पर धमकी दी जिसे उन्होंने रेकॉर्ड कर लिया. यह रिकॉर्डिंग ठाकुर ने सार्वजनिक कर दी है लेकिन समाजवादी पार्टी का आरोप है कि रिकॉर्डिंग “डॉक्टर्ड” है यानी उसके साथ छेड़छाड़ की गई है. यही नहीं, पार्टी प्रवक्ता ने ठाकुर पर बातचीत रेकॉर्ड करने का “अनैतिक” काम करने का आरोप भी लगाया है. इसके अगले ही दिन पुलिस ने महीनों पुरानी शिकायत को, जिसपर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की जा रही थी, एफआईआर में तब्दील कर दिया. ठाकुर ने अपनी और अपने परिवार की जान को खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की है और केंद्रीय गृह मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया है.

इस कांड में कौन सही है और कौन गलत, यहां इसका फैसला करना संभव नहीं. लेकिन यह जरूर है कि इससे नौकरशाही और सरकार के रिश्ते का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है. अफसरों का कहना है कि जब तक उनके सेवा नियमों में परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक स्थिति सुधर नहीं सकती क्योंकि नियम ऐसे हैं कि उन्हें मंत्री की गलत बात भी माननी पड़ती है.

भारतीय नौकरशाही और पुलिस ब्रिटिश राज की विरासत हैं. इनका निर्माण औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा करने और भारतवासियों को दबा कर रखने के लिए किया गया था. ब्रिटिश नौकरशाही और पुलिस और भारतीय नौकरशाही और पुलिस के चरित्र और स्वरूप में बहुत अंतर है. खेद की बात यह है कि आजादी के 68 साल बाद भी स्वाधीन देश की सरकार ने इस चरित्र को लोकतंत्र की अपेक्षाओं के अनुरूप ढालने की दिशा में कुछ खास नहीं किया. कई पुलिस सुधार आयोग गठित हुए लेकिन उनकी सिफारिशें धूल फांकती रहीं. नतीजा यह है कि राजनीतिक नेता नौकरशाहों और पुलिस अफसरों को अपना निजी सेवक समझने के आदी होते गए. यदि इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम न उठाया गया, तो उत्तर प्रदेश जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार