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अफगानिस्तान में महिला पत्रकारों की सुरक्षा का मुद्दा

७ मार्च २०१७

जिहादी गृहयुद्ध से प्रभावित अफगानिस्तान में महिलाओं की सुरक्षा बड़ा मुद्दा है. अब रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स ने पत्रकारों के लिए इस दूसरे सबसे खतरनाक देश में महिला पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक सेंटर शुरू किया.

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Afghanistan Tadschikistan Projekt Akademie
तस्वीर: DW

महिला पत्रकारों के लिए शुरू किये गए इस सेंटर का मकसद उनके लिए काम की बेहतर परिस्थितियों और ज्यादा अधिकारों के लिए सरकार और सरकारी संस्थाओं में पैरवी करना है. यह महिला पत्रकारों के परिवार के सदस्यों से मिलकर इस रवैये को बदलने की भी कोशिश करेगा कि पत्रकारिता का पेशा महिलाओं के लिए नहीं है. अफगानिस्तान सीरिया के बाद पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश है.

सेंटर की प्रमुख फरीदा निकजाद का कहना है कि महिला पत्रकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षा और काम की जगह यौन दुर्व्यवहार है. वे कहती हैं, "हम युद्ध क्षेत्र में और मीडिया संगठनों के अंदर भी महिला पत्रकारों की मदद करना चाहते हैं ताकि वे अपने अधिकारों और शारीरिक सुरक्षा का बचाव कर सकें."

सेंटर खोले जाने के मौके पर मौजूद रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स के महासचिव क्रिस्टॉफ डेलोआ ने कहा, "महिला पत्रकारों की सुरक्षा कर हम अफगानिस्तान में मीडिया की आजादी की रक्षा कर रहे हैं." अफगानिस्तान में इस समय करीब 300-400 महिला पत्रकार हैं जो मुख्यतः बड़े शहरों में काम करती हैं. अक्सर उन्हें एक ओर तालिबान का और दूसरी ओर परिवार का दबाव झेलना पड़ता है.

अफगानिस्तान में बहुत से लोग पत्रकारिता को महिलाओं का काम नहीं समझते. रिपोर्ट्स विदाउट बोर्डर्स के अनुसार इसकी वजह से 2002 से चार महिला पत्रकारों की उनके अपने रिश्तेदारों ने हत्या कर दी है. अफगान पत्रकार सुरक्षा समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 में अफगानिस्तान में 13 पत्रकारों की हत्या की गई जिनमें दस की हत्या में तालिबान का हाथ था.

पिछले साल जनवरी में इस्लामी विद्रोहियों के खिलाफ समझे जाने वाले लोकप्रिय टीवी चैनल तोलो के सात कर्मचारी काबुल में एक आत्मघाती हमले में मारे गए. तालिबान ने इस हमले को अपने खिलाफ प्रचार का बदला बताया.

महिला पत्रकारों के लिए बने सेंटर की एक उम्मीद यह भी है कि वह मीडिया हाउसों के मालिकों पर भेदभाव दूर करने के लिए दबाव बना सकेगा. अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत बल्ख में काम करने वाली 25 वर्षीया पत्रकार शीला बहीर बताती हैं कि उन्हें सहयोगियों का अनादर सहने के बाद टीवी चैनल छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. अब वे फ्रीलांस रेडियो रिपोर्टर हैं.

एमजे/एके (एएफपी)