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अपराधी का पीछा करते डिटेक्टिव

५ जून २०१३

फिल्मों में, जासूसी किताबों में और टीवी पर उनका जीवन रोमांच से भरा दिखता है. वारदात की जगह पर अपराधी का कोई सुराख उनकी आंखों से बच नहीं पाता. पर असल जिंदगी में आखिर कैसा होता है एक जासूस का जीवन?

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तस्वीर: Robert Kneschke - Fotolia.com

खून से लथपथ तकिए पर पड़ी एक बच्चे की लाश, जख्म देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसकी जान कैसे गयी होगी. एक ऐसा दृश्य जिसे ऑस्ट्रिया के डिटेक्टिव थोमस म्युलर कभी भूल नहीं सकते. वह ऑस्ट्रियाई पुलिस की क्राइम ब्रांच में डिटेक्टिव हैं. डॉयचे वेले से बातचीत में वह अपने पेशे के बारे में बताते हैं, "अधिकतर लोग सोचते हैं कि मैं अपराधी के दिमाग में घुस कर सोचता हूं कि उसका अगला कदम क्या होगा. लेकिन ऐसा बस टीवी में ही होता है".

उठते हैं कई सवाल

एक बार जब पुलिस मौका ए वारदात की तसवीरें ले लेती है, अपराधी द्वारा छोड़े गए सबूत और अपराध से जुड़े गवाहों को जमा कर चुकी होती है, तब शुरू होता है म्युलर का काम. इनके आधार पर म्युलर अलग अलग निष्कर्ष पर पहुंचते हैं. वह बताते हैं, "लोग किसी वजह से कोई फैसला लेते हैं. इसलिए हम जब इन फैसलों का आकलन करें, तो हम उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटा सकते हैं."

अपराधी ने किस तरह से लाश को रखा, उसने किस तरह के हथियार का इस्तेमाल किया, अपने शिकार के साथ उसने कैसा व्यवहार किया, क्या वह केवल उसके मरने तक ही उसे छूरा मारता रहा, या उसके बाद भी? ये ऐसे सवाल हैं जिनसे म्युलर का अक्सर वास्ता पड़ता है. इन्हीं के जवाब तलाश कर वह अपराधी की एक छवि तैयार कर पाते हैं.

Kriminalpsychologen Thomas Müller
ऑस्ट्रिया के डिटेक्टिव थोमस म्युलरतस्वीर: Ecowin

मनोविज्ञान से जवाब

म्युलर पहले बीट ऑफिसर के तौर पर काम करते थे. अपने करियर की शुरुआत में उन्हें सड़कों पर गश्त लगाना होता था. उन दिनों की याद करते हुए वह बताते हैं, "तीन साल तक लगातार मेरी ड्यूटी क्रिसमस के दिन लगी और एक ऐसा घर था जहां मुझे हर बार जाना पड़ा, क्योंकि हर बार वहां एक पिता अपने बच्चों को क्रिसमस ट्री के नीचे खड़ा कर के पीटता था".

इस तरह की घटनाओं ने म्युलर पर कुछ ऐसा असर डाला कि वह इस बात को समझने के लिए उत्सुक हो गए कि इंसानी दिमाग किस तरह काम करता है और किन हालातों में लोगों का रवैया ऐसा हो जाता है. इसीलिए उन्होंने मनोविज्ञान पढ़ने का फैसला किया. फिर दो साल तक अमेरिका में एफबीआई के साथ ट्रेनिंग की.

तब से अब तक म्युलर यौन उत्पीड़न से जुड़े 1,000 से अधिक मामलों पर काम कर चुके हैं, "मैं एक अपराधी की तरह नहीं सोच सकता, मैं उसकी तरह महसूस नहीं कर सकता, लेकिन मैं उससे बहुत कुछ सीख सकता हूं".

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जासूस का जीवन वैसा नहीं होता जैसा किताबों और फिल्मों में दिखता है.तस्वीर: Fotolia

"परफेक्ट क्राइम"

म्युलर ने हत्या और बलात्कार के मामलों में कैद काट रहे कई अपराधियों से जेल में बात की है. वह उनसे एक जैसे ही सवाल करते हैं, उनके बर्ताव के बारे में, तनाव के बारे में, किसी स्थिति में वे कैसा फैसला लेंगे, उन्हें किन चीजों से सुकून मिलता है, ये सब वह उनसे पूछते हैं. जब अलग अलग अपराधियों से उन्हें एक जैसे ही जवाब मिलते हैं, तो म्युलर के लिए राह आसान हो जाती है. उसके बाद उनके लिए यह समझना आसान हो जाता है कि सबूतों को किस तरह से पढ़ना है.

लेकिन वारदात की जगह पर निशानों को पढ़ना कोई आसान काम नहीं. हवा, तापमान या फिर जानवरों के कारण मिनटों में उस जगह का नक्शा बदल सकता है. इन निशानों के ही आधार पर पुलिस विभाग ने एक डाटा बैंक तैयार किया है. इस से म्युलर को यह मदद मिलती है कि वह कंप्यूटर में सबूतों को डाल कर उनसे जुड़ी और जानकारी हासिल कर सकते हैं.

कुछ अपराधी एक ही चीज दोहराते हैं. जैसे 90 के दशक में ऑस्ट्रिया, चेक गणराज्य और अमेरिका में कई वेश्याओं का एक ही तरह से कत्ल किया गया. जासूस ऐसे मामलों में अंदाजा लगा सकते हैं कि यह एक ही व्यक्ति का काम है. लेकिन कई बार अपराधी जानबूझ कर चीजें बदलने की कोशिश करते हैं. यहां तक कि कई तो सबूतों को मिटा देने के लिए आग ही लगा देते हैं. लेकिन म्युलर के अनुसार, "अधिकतर लोग यहां एक बड़ी गलती कर जाते हैं. अपराधियों के लिए यह बूमरैंग जैसा होता है, यानी यह (उनकी गलती) हमेशा लौट कर वापस आएगी". म्युलर की नजर में "परफेक्ट क्राइम" जैसा कुछ भी नहीं होता.

रिपोर्ट: हाना फुक्स/ ईशा भाटिया

संपादन: महेश झा

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