अपनों को ठिकाने लगाती आप
२७ मार्च २०१५आम आदमी पार्टी टूट के कगार पर है. अगर उस टेप रिकॉर्डिंग को सही मानें जिसे एक टीवी चैनल ने जारी किया है (हालांकि चैनल ने स्पष्ट किया है कि वह इसकी प्रामाणिकता का दावा नहीं कर रहा), तो आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तय कर चुके हैं कि योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार जैसे बुद्धिजीवियों की अब पार्टी में कोई जगह नहीं है और वे ऐसे नेताओं को पसंद नहीं करते जो विचारधारा, राजनीतिक मूल्यों, पार्टी के भीतर लोकतंत्र, जनता की भागीदारी और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर पार्टी नेतृत्व से सवाल करते हों. यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल पार्टी सुप्रीमो की तरह काम करना चाहते हैं और अगर इस मुद्दे पर पार्टी में विभाजन के लिए भी तैयार हैं.
बहुत पुरानी कहावत है कि क्रांति सबसे पहले अपने बच्चों को ही खाती है. अक्सर यही देखा गया है कि वह अपने विचारवान बच्चों को ही सबसे पहले खाती है. रूस में हुई समाजवादी क्रांति के बाद के दो दशकों के भीतर बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व से उन सभी का सफाया हो गया जो पार्टी के भीतर विचारक और बुद्धिजीवी माने जाते थे. क्योंकि वहां तानाशाही थी, इसलिए ट्रोट्स्की और बुखारिन जैसे नेताओं को सिर्फ पार्टी से ही नहीं, दुनिया से ही चलता कर दिया गया. बोल्शेविक पार्टी के आदर्श आम आदमी पार्टी के आदर्शों की तुलना में कहीं अधिक महान थे, लेकिन मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत करने और मानवमुक्ति का विराट स्वप्न दिखाने वाली क्रांति की परणिति एक व्यक्ति की तानाशाही में हुई और स्तालिन कम्युनिस्ट तानाशाह की तरह उभरे.
आज आम आदमी पार्टी भी ऐसे ही दौर से गुजर रही है. आम आदमी के नाम पर बनी इस पार्टी में चार-पांच नेताओं के एक गुट ने अरविंद केजरीवाल को घेर लिया है और उनके नाम पर और उनकी शह पर वही अब पार्टी चला रहा है. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा में इस पार्टी की लगभग तानाशाही है क्योंकि 70 में से 67 सीटें इसके पास हैं, यानि सदन में विपक्ष नाम की कोई चीज ही नहीं है.
हर मुद्दे पर धरना देने और जनता के पास फैसले के लिए जाने वाले केजरीवाल रहस्यमय ढंग से चुप हैं. पार्टी में उभरे गंभीर संकट पर उनका एक भी सार्वजनिक बयान नहीं आया है. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार का कहना है कि वे काफी समय से अरविंद केजरीवाल से मिलने का अनुरोध करते आ रहे हैं लेकिन अभी तक केजरीवाल ने उन्हें मुलाकात का मौका नहीं दिया है. मुख्यमंत्री बनते ही केजरीवाल यदि अपने निकट सहयोगियों के लिए ही दुष्प्राप्य बन गए हैं, तो आम जनता किस भरोसे उनके पास अपनी शिकायतों को लेकर जा सकेगी?
अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने लोगों के बीच बहुत समय बाद यह उम्मीद जगाई कि भ्रष्टाचार को दूर नहीं तो कम तो अवश्य ही किया ही जा सकता है. और इस एक उम्मीद ने लोगों को इतना उत्साहित कर दिया कि उन्होंने ‘आप' जैसी नई पार्टी को दिल्ली विधानसभा में अभूतपूर्व बहुमत दिया. इस पार्टी के कई उम्मीदवार लोकसभा में भी पहुंचे और अब दिल्ली से राज्यसभा सदस्य भी उसी के बनेंगे. इसे देखकर 1977 के लोकसभा चुनाव की याद आती है जिसमें देश पर इमरजेंसी लगाने वाली इन्दिरा गांधी को जनता ने हराकर घर भेज दिया था और पूरे देश में लोकतंत्र की बयार एक बार फिर से बहने लगी थी. चारों तरफ उत्साह था और केंद्र से कांग्रेस की विदाई को ‘दूसरी आजादी' का नाम दिया जा रहा था. लेकिन कुछ ही दिन बाद जनता पार्टी के नेताओं का कलह सार्वजनिक होकर सामने आने लगा और ढाई साल में वह टूट गयी. तीन साल बाद इन्दिरा गांधी चुनाव जीत कर फिर सत्ता में आ गयी. विधानसभा चुनाव में जीत के बाद ‘आप' के भीतर वही उठापटक और खींचतान नजर आने लगी है जो जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद नजर आई थी.
लोकतंत्र में जनता की भागीदारी सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, आम आदमी पार्टी ने हमेशा इस सिद्धान्त का प्रचार किया है. उसका लक्ष्य मोहल्ला स्तर के कमेटियों को भी अधिकार देने का है. लेकिन पार्टी के भीतर एक दूसरे किस्म की ही संस्कृति पनपती नजर आ रही है और यह दुर्भाग्य से वही संस्कृति है जो कमोबेश अन्य पार्टियों में भी जड़ें जमाये बैठी है. जिस तरह आज भारतीय जनता पार्टी में हर उपलब्धि का श्रेय नरेंद्र मोदी को दिया जा रहा है, जिस तरह कांग्रेस में सोनिया गांधी, समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल में लालू प्रसाद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शरद पवार सुप्रीमो बने हुए हैं, वैसे ही आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल को सुप्रीमो बनाने का सुनियोजित प्रयास चल रहा है. आज उनसे सवाल करने वालों की पार्टी में कोई जगह नहीं है. आम आदमी पार्टी और लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार