अपनी जड़ों से उखड़ते भारतीय
७ दिसम्बर २०१६फिलहाल भारत की 45.40 करोड़ आबादी विस्थापित है. केंद्र सरकार की ओर से वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर जारी ताजा आंकड़ों से इसका खुलासा हुआ है. इससे साफ है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच देश में लगभग 14 करोड़ लोग किसी न किसी वजह से विस्थापित हुए हैं. इनमें शादी के बाद पति के साथ रहने के लिए जाने वाली महिलाओं की भी बड़ी आबादी है.
रिपोर्ट
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में होने वाला विस्थापन बीते दशक यानी 1991-2001 के समान लगभग 17 फीसदी ही है. इस दौरान खासकर दक्षिणी राज्यों में बसने वाले विस्थापितों की तादाद तेजी से बढ़ी है. बीते दशक के दौरान तमिलनाडु में विस्थापितों की तादाद 98 फीसदी बढ़ कर 3.13 करोड़ तक पहुंच गई है. फिलहाल राज्य की आबादी में 43.4 फीसदी विस्थापित हैं. इसी तरह पड़ोसी राज्य केरल में विस्थापितों की आबादी 77 फीसदी बढ़ कर 1.63 करोड़ तक पहुंच गई. कर्नाटक में इस दौरान ऐसे लोगों की तादाद में 50 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई है.
यह जान कर हैरानी हो सकती है कि इस दौरान दो पूर्वोत्तर राज्यों मेघालय और मणिपुर में विस्थापित लोगों की आबादी क्रमशः 108 और 97 फीसदी बढ़ गई. असम के मामले में यह वृद्धि 52 फीसदी रही. ताजा आंकड़ों के मुताबिक विस्थापितों की आबादी के मामले में 5.91 करोड़ लोगों के साथ उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है और 5.73 करोड़ के साथ महाराष्ट्र दूसरे पर. इसके बाद क्रमशः पश्चिम बंगाल (3.33 करोड़), आंध्र प्रदेश (3.32 करोड़) और तमिलनाडु (3.13 करोड़ ) का स्थान है.
वजह
दुनिया भर में विस्थापन को अपना अस्तित्व बचाने की आम लोगों की लड़ाई से जोड़ कर देखा जाता है. कामकाज और व्यापार को विस्थापन की सबसे बड़ी वजह माना जाता रहा है. लेकिन भारत में शादी भी विस्थापन की एक बड़ी वजह बन गई है. सर्वेक्षण के दौरान 45.36 करोड़ विस्थापितों में से लगभग 69 फीसदी यानी 22.39 करोड़ ने शादी को विस्थापन की वजह बताया. लगभग 11.17 करोड़ लोगों को नौकरी या व्यापार के चलते विस्थापन करना पड़ा. इस रिपोर्ट से साफ है कि भारतीय महिलाएं अब शादी के अलावा कामकाज और शिक्षा के चलते भी विस्थापित हो रही हैं. ऐसी महिलाओं की तादाद बीते दशक के मुकाबले 129 फीसदी बढ़ कर 1.17 करोड़ तक पहुंच गई है.
विस्थापितों की लगातार बढ़ती तादाद देश में बढ़ती आर्थिक खाई का भी संकेत है. यह देखने में आया है कि देश के तेजी से विकसित होने वाले राज्यों में पहुंचने वाले विस्थापितों की तादाद दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी बढ़ी है. ग्रामीण इलाकों में रोजगार के मौके उपलब्ध नहीं होने की वजह से लोगों में कामकाज की तलाश में शहरों का रुख करने की प्रवृत्ति भी तेज हुई है.
असर
विस्थापितों की तेजी से बढ़ती आबादी ने कई सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी समस्याओं को भी जन्म दिया है. अलग भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से भिन्न इलाकों में पहुंचने वाले लोगों की वजह से स्थानीय आबादी के साथ उनका टकराव बढ़ता है. दक्षिण के अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसे टकराव और तनाव की खबरें अक्सर सामने आती रहती हैं. खासकर मणिपुर में तो बाहरी लोगों के खिलाफ लगातार आंदोलन होते रहे हैं. इस विस्थापन को गांवों से गांवों, गांवों से शहरों, शहरों से गांवों और शहरों से शहरों यानी चार वर्गों में रखा जा सकता है. अंतरजिला और अंतरराज्यीय विस्थापन भी इनमें शामिल है.
देश में आंतरिक विस्थापन के लिए पुरुषों व महिलाओं के मामले में अलग-अलग अहम वजहें हैं. पुरुषों के लिए यह वजह नौकरी या रोजगार है तो महिलाओं के लिए मुख्य रूप से शादी. दूसरी अहम वजह पूरे परिवार के साथ रोजगार या व्यापार के सिलसिले में दूसरे शहरों में जाकर बसना है. यह वजह पुरुषों व महिलाओं के मामले में समान रूप से लागू होती है.
विशेषज्ञों की राय
समाजशास्त्रियों का कहना है कि एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन से उन दोनों इलाकों को कुछ लाभ होता है और कुछ नुकसान. विस्थापित लोग अपने घरों को जो पैसे भेजते हैं, वह उस इलाके के लिए सबसे बड़ा फायदा है. यह धन संबंधित इलाके में परिवार के विकास और रहन-सहन का स्तर बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है. लेकिन शहरी इलाकों में विस्थापित आबादी से वहां बढ़ती भीड़ और इसकी वजह से बढ़ते झोपड़पट्टी वाले इलाके, विस्थापन के नकारात्मक नतीजे के तौर पर सामने आए हैं.
समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉक्टर धीरेन बोरदोलोई कहते हैं, "विस्थापित लोग सांस्कृतिक व सामाजिक बदलाव के एजेंट होते हैं. इससे विभिन्न संस्कृतियां मिल कर एक मिश्रित संस्कृति को जन्म देती हैं." वह कहते हैं कि विस्थापन से बढ़ने वाली भीड़ से संबंधित इलाके के आधारभूत ढांचे पर दबाव बढ़ता है. इससे अनियोजित विकास को बढ़ावा मिलता है और झोपड़पट्टियों का तेजी से विस्तार होता है. इसके चलते भूमिगत पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के जरूरत से ज्यादा दोहन और वायु प्रदूषण की समस्याएं भी पैदा होती हैं. टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज के डॉक्टर अब्दुल शाबान कहते हैं, "तेजी से विकसित होने वाले इलाकों में श्रमशक्ति की कमी को पाटने के लिए भी विस्थापन की प्रक्रिया तेज होती है."
विशेषज्ञों का कहना है कि बड़े पैमाने पर होने वाले विस्थापन से साफ है कि क्षेत्रीय विकास की खाई लगातार चौड़ी हो रही है. उनकी राय में विस्थापन के नकारात्मक प्रभावों पर अंकुश लगाने के लिए ग्रामीण इलाकों में विकास की प्रक्रिया तेज कर वहां रोजगार के मौके उपलब्ध कराना जरूरी है. क्षेत्रीय विकास में संतुलन बनाने की स्थिति में विस्थापन की गति पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है.