अनजान विषयों में बड़ा करियर
१० अगस्त २०१३
ओलाफ पिंकपांक ने जब न्यूग्रीक स्टडी के लिए दाखिला लिया, तो उन्हें करियर की चिंता इतनी नहीं थी, "पढ़ाई शुरू करने से पहले ही मैंने ग्रीक भाषा सीखी. पहले ग्रीस जाकर और फिर यहां के ईवनिंग स्कूल में. अपनी पसंद के कारण मैंने इस विषय की पढ़ाई के बारे में सोचा." ओलाफ बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं. शुरू में उन्होंने सोचा कि पढ़ाई पूरी कर वह ग्रीस चले जाएंगे और वहीं काम करेंगे. या तो कॉलेज में या फिर टूरिज्म मैनेजमेंट में.
ये पढ़ कर क्या होगा, क्या काम मिलेगा, ऐसे सवालों की ओलाफ को आदत पड़ गई है. इस तरह के सवाल अक्सर उन लोगों से पूछे जाते हैं जो अलग तरह के विषय चुनते हैं. इनमें भारतीय भाषा, संस्कृति और इतिहास पढ़ने वाले लोग भी हैं. किसी जमाने में भारतीय भाषा संस्कृत मानी जाती थी लेकिन अब हाइडेलबेर्ग, कोलोन और गोएटिंगन की यूनिवर्सिटियों में हिन्दी, तमिल, मलयालम और मराठी भी सिखाई जा रही है. संस्कृत अभी भी पढ़ाई जाती है. यहां पढ़ाई करने वाले छात्र या तो जर्मनी या यूरोप की किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. इसके अलावा जर्मन-भारत से जुड़े व्यापार, पर्यटन, सांस्कृतिक ट्रेनिंग में भी भाषा का फायदा हो सकता है.
जर्मन मानव संसाधन संगठनों के संघ के अध्यक्ष योआखिम सावर कहते हैं कि जिन विषयों के बारे में लोग कम जानते हैं, उनकी पढ़ाई से करियर के अच्छे मौके मिलते हैं, "अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के दौर में कंपनियां एक्सपर्ट की ओर ज्यादा ध्यान दे रही हैं." जर्मनी में छोटे विषयों का मतलब है जहां ज्यादा से ज्यादा तीन प्रोफेसर हों और जो देश के 10 फीसदी से भी कम कॉलेजों में पढ़ाए जा रहे हों. जर्मनी में यूनिवर्सिटी अध्यक्षों की कांफ्रेंस के मुताबिक जर्मनी में ऐसे विषयों की संख्या सबसे ज्यादा है. इन्हें जर्मन में ऑर्किडेनफेषर कहा जाता है.
छोटा ही पसंद
80 फीसदी छोटे विषय या तो सामाजिक विज्ञान से जुड़े हैं या फिर संस्कृति और भाषा से. लेकिन इंजीनियरिंग, विज्ञान और अर्थशास्त्र में ऐसे विषय हैं जिनमें कम लोग जाते हैं. ऐसे ही एक विषय में की पढ़ाई की है युआइफेई शी ने. तकनीकी यूनवर्सिटी बर्लिन में रिसर्चर शी को पता नहीं था कि उनके देश चीन में ट्रेन तकनीक कई कॉलेजों में सिखाई जाती है. वे बताती हैं, "जर्मनी में तो रेल पूरी तरह विकसित है लेकिन चीन में अभी भी इस दिशा में आने वाले कई दिनों तक विकास होगा." चूंकि चीन में कई नई पटरियां बिछाई जा रही हैं इसलिए इसकी तकनीक के एक्सपर्टों की वहां बहुत जरूरत है.
पढ़ाई और रिसर्च के दौरान शी ने जर्मन और चीन कंपनियों में ट्रेनिंग ली. आने वाले दिनों में भी वह दोनों देशों में काम करना चाहती हैं. सिर्फ निजी जानकारी और रुचि के कारण नहीं, बल्कि वह दोनों देशों के बीच संबंधों को भी गहरा करना चाहती हैं और इसमें योगदान देना चाहती हैं, "मेरे जैसे छात्र पुल का काम करते हैं. हमें दोनों देशों को जितनी अच्छे से हो सके, जोड़ना चाहिए."
अच्छा माहौल
संस्कृतियों के बीच पुल का काम भाषा और संस्कृति पढ़ने वाले अधिकतर लोग करते हैं. सावर सलाह देते हैं कि चाहे मध्यपूर्व अध्ययन हो, यिडिष (यहूदियों की प्राचीन भाषा) विज्ञान या स्कैंडिनेवियाई भाषा और संस्कृति सीखाना, जरूरी है कि वह नौकरी से पहले अच्छी ट्रेनिंग लें.
बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में तुर्क भाषा सीखने वाली छात्रा कालीना लेनेस जानती हैं कि सिर्फ भाषा और संस्कृति को सीखने से उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी. इसलिए उन्होंने स्कूल के बाद सबसे पहले ट्रेनिंग ली. एक साल उन्होंने यूरोपीय स्वयंसेवियों के साथ जॉर्जिया में बिताया, "इस दौरान मैंने इंटर कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के लिए काम किया. मुझे लगता है कि पढ़ाई के बाद इस अनुभव का मैं अच्छे से इस्तेमाल कर सकूंगी."
प्रोफेसरों की मदद के बारे में ओलाफ पिंकपांक, कालीना लेनेस और यूनाफेई शी बहुत अच्छी राय रखते हैं. पिंकपांक कहते हैं, "ऐसे विषयों में माहौल अच्छा रहता है और आप जल्दी सीखते हैं." वहीं यूनाफेई शी के पीएचडी थीसीस गाइड प्रोफेसर पेटर म्निष अपना काम समझते हैं कि छात्रों को विषय चुनने में मदद की जाए या फिर थीसीस लिखने में मदद की जाए, "रोजगार पाने में भी उनकी मदद हमें करनी चाहिए. और छोटे विषयों विभागों में यह संभव है. म्निष कंपनियों में अपनी पहचान का इस्तेमाल करते हैं और अपने छात्रों को ट्रेनिंग या काम के लिए भेजते हैं.
दूसरे काम में भी
न्यू ग्रीक पढ़ने वाले ओलाफ पिंकपांक को भी अपनी प्रोफेसर की मदद से नौकरी मिल रही है. मास्टर्स करने के बाद वह एक प्रोजेक्ट में काम कर सकते हैं. इसके तहत मिस्र से आए ग्रीक ताड़पत्र पैपिरस का यहूदी जीवन के प्रमाण के तौर पर विश्लेषण किया जाएगा. लेकिन इस तरह एकदम पसंद का काम मिलना किस्मत की बात है.
साहित्य या भाषा की पढ़ाई करने वाले कई लोगों ने कंपनियों में नेतृत्व पद हासिल किया है. इसलिए अक्सर सलाह दी जाती है कि भाषा विज्ञान के साथ कोई व्यावसायिक कोर्स भी कर लिया जाए. जैसे संस्कृत के साथ अर्थशास्त्र या हिन्दी के साथ एमबीए.
रिपोर्डः बियंका श्रोएडर/आभा मोंढे
संपादनः ए जमाल